Book Title: Prakaran Sangraha
Author(s): Jaina Publishing Company
Publisher: Jaina Publishing Company
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________________ // सिन्दूरप्रकर // // 7 // DOG OtheTOCOINDIGENCOREIGOSHDAIBANDHDJABRETOGGETSto सेवन्ते कृपणं पति गजघटासंघट्टषुःसंचरं, सर्पन्ति प्रधनं धनानिधतधियस्तलोनविस्फूर्जितम् // 27 // मूलं मोह विषद्रुमस्य सुकृतांजोरा शिकुंजोद्भवः, क्रोधाग्नेररणि प्रतापतरणिप्रच्छादने तोयदः / क्रीमासद्म कलेविवेकशशिनः स्वर्नाणुरापनदी,-सिन्धुः कीर्तिज्ञताकलापकानो लोनः पराभूयताम् // 5 // // वसन्ततिलकावृत्तम्॥ निःशेषधर्मवनदाह विजूंजमाणे, मुःखौघजस्मनि विसर्पदकीर्तिधूमे / बाढं धनेन्धनसमागमदीप्यमाने, बोनानने शबनतां बनते गुणोघः // 25 // ॥शार्दूलविक्रीमितम् // . जातः कल्पतरुः पुरः सुरगवी तेषां प्रविष्टा गृहं,चिन्तारत्नमुपस्थितं करतले प्राप्ता निधिः संनिधिम् / विश्वं वश्यमवश्यमेव सुननाः स्वर्गापवर्गश्रियो,ये संतोपमशेषदोपदहनध्वंसांबुदं बिज्रते / / 60 // // शिखरिणीवृत्तम् // वरं क्षिप्तः पाणिः कुपितफणिनो वक्त्रकुहरे, वरं ऊंपापातो ज्वादनलकुंके विरचितः। वर पासप्रान्तः सपदि जठरान्तर्विनिहितो, न जन्य दोर्जेन्यं तदपि विपदां सम विदुषा // 61 // ReaderGORATORATOMORROWOODTCOMDHEJADHere.GOPIDGhee)

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