Book Title: Prakaran Sangraha
Author(s): Jaina Publishing Company
Publisher: Jaina Publishing Company

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Page 17
________________ HEADHerCHEHETCHENSUSHerC-SSC-CGLIHEROINTMEGHOTOPEDIA शमकमलहिमानी पुर्यशोराजधानी, व्यसनशतसहायां दूरतो मुञ्च मायाम् // 53 // // जपेन्प्रवज्रावृत्तम् // विधाय मायां विविधैरुपायैः, परस्य ये कञ्चनमाचरन्ति / ते वञ्चयन्ति त्रिदिवापवर्ग:-सुखान्महामोहसखाः स्वमेव / / 54 // ॥जवज्रावृत्तम् // मायाम विश्वास विनासमन्दिरं, पुराशयो यः कुरुते धनाशया / / सोऽनर्थसार्थ न पतन्तमीकते, यथा विमालो बगु पयः पिबन् / // 55 // // वसन्ततिलकावृत्तम् // मुग्धप्रतारणपरायणमुज्जिहीते, यत्पाटवं कपटांपट चित्तवृत्तेः / जीर्यत्युपप्लवमवश्यमिहाप्यकृत्वा, नापथ्यनोजनमिवामयमायतौ तत् // 56 // ॥शार्दूलविक्रीमितम् // यदुर्गामटवीमटन्ति विकट क्रामन्ति देशान्तरं, गाहनते गहनं समुघमतनुक्लेशां कृषि कुर्वते / HDDEdevedera GarmerceTCHCHEDUCERSHerCorrecret

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