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७१४ है जो मूल प्रति से १३ अधिक हैं। यह सम्पत् १६४८ जेठ सुदी १२ गुरुवार को हिसार नगर में घयालदास द्वारा लिखी गई थी। पांडे प्रहलाद ने इसकी प्रतिलि की थी । इसकी लेखक प्रशस्ति निम्न प्रकार है :
संचन १६४८ वर्षे ज्येष्ठ शुत्रल पक्षे १२ द्वादश्यां गुरुवासरे श्री साहजहा राज्ये श्री हिसार नगर मध्ये लिखितं दयालदासेन लिखापितं पांडे पहिलाद । शुभमस्तु ।
(४) चौथी प्रति ( 'ग' प्रति)
यह प्रति सिंधिया प्रोरिन्टियल इन्स्टीट्य ट उज्जैन के संग्रहालय की है। इम प्रति में ७१३ छंद है, । इसका लेखनकाल संवत् १६३५ आसोज बुदी ११ मादित्यचार है । इस प्रति को राजगच्छ के उपाध्याय विनन्यसुन्दर के प्रशिष्य एवं भक्तिरत्न के शिष्य नवरत्न ने अपने पढ़ने के लिये लिखा था। पाठ भेदों में इस प्रति को 'ग' प्रति कहा गया है।
इसमें प्रारम्भ से ही चौबीस तीर्थकरों को नमस्कार किया गय! है जब कि अन्य तीन प्रतियों में में पद्य से (ख प्रति में बैं पद्य से) नमस्कार किया गया है | मंगलाचरण के प्रारम्भ के १२ पद्म निम्न प्रकार हैंरिषभ प्रजित संभौ जिनस्वामि, कम्मनि नासि भयो शिवगामी। अभिनंदनदेउ सुमति जगईस, तीनि बार तिन्ह नामउ सीस ॥ १॥ पद्मप्रभ सुपास जिणदेव, इन्द फनिंद करहिं तुम्ह सेव । चन्द्रप्रभ पाठमउ जिणिद, चिन्ह धुजा सोहइ वर चन्दु ।। २ ।। नत्रमउ सुविधि नवहु भवितासु, सिद्ध सरुपु मुकति भयो भासु । सीतल नाथ श्रेयांस जिणंदु, जिण पुजत भवो होइ आनंद ॥ ३ ।। वासपूज्य जिरणधर्म सुजाण, भवियरण कमल देव तुम्ह भाणु । चक्र भवनु साई संसारु, स्वर नरकउ सु उलंघरण हारु ॥४॥ विमलनाथ जउ निर्मलबुधि, तजि भउ पार लही सिव सिद्धि । सो जिण अनंतु बारंबार, अष्ट कर्म तिणि कीन्हे छार ॥ ५॥ जउ रे धर्म धम्मधुरवीर, पंच सुमति बर साहस धीर । जैरे सति तजी जिणि रीस, भवीयण संति करउ जगईस ॥ ६॥