Book Title: Pradyumna Charit
Author(s): Sadharu Kavi, Chainsukhdas Nyayatirth
Publisher: Kesharlal Bakshi Jaipur

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Page 9
________________ सन् १९५४ में जयपुर के बधीचन्दजी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार की सूची बनाने के अवसर पर उसी भण्डार में हमें 'प्रय म्न-चरित' को भी एक प्रति प्राप्त हुई। जयपुर के उक भण्डार की ग्रन्थ सूची बनाने का काम जब पूरा हो गया तो इस पुस्तक के सम्पादक श्री कासलीवाल और श्री अनुपचन्द न्यायतीर्थ को भरतपुर प्रान्त के जैन अन्य भण्डारों को देखने के लिये जाना पड़ा और कामों ( भरतपुर ) के दोनों ही मन्दिरों के शास्त्र भण्डरों में 'प्रया म्न-चरित' की एक एक प्रति और भी उपलब्ध हो गई लेकिन जब इन दोनों प्रतियों को परस्पर में मिलाया गया नो पाठ भेद एवं प्रारम्भिक पाठ विभिन्नता के अतिरिक्त रचना काल में भी १८ वर्ष का अन्तर मिला। अग्रवाल पंचायती मन्दिर वाली प्रति में रचना सम्बत् १३११ दया हुआ है किन्तु यह प्रति अपूर्ण, फटी हुई एक नवीन है। भाषा की दृष्टि से भी वह नीन मालूम होती है । खंडेलवाल पंचायती मन्दिर वाली प्रति में रचना काल सम्बत् १४११ दिया हुआ है नथा वह प्राचीन भी है । इसी प्रति का हमने सम्पादन कार्य में 'क' प्रति के नाम से उपयोग कित्रा है। इसी बीच में नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से रीवां में हिन्दी ग्रन्थों के शोध का कार्य प्रारम्भ किया गया और सभा के साहित्यान्वेषक को वहीं के दि. जैन मन्दिर में इस ग्रन्थ की एक प्रति प्राप्त हुई, जिसका संक्षिप्त परिचय 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' देहली में प्रकाशित हुआ। पर इस लेख से भी 'प्रद्य म्न-चरित' के सामान्य महत्व के अतिरिक्त कोई विशेष परिचय नहीं मिला। साहित्यान्वेपक महोदय ने लिखा है कि "इसके कर्ता गुण सागर ( जैन ) आगरा निवासी सम्बत १३११ में हुए थे" लेखक ने इस रचना को ७.१ वर्ष पहले की बताया । अन्ध का वही नाम देख कर हमने उसका आदि अन्त का पाठ भेजने के लिये श्री रघुनाथजी शास्त्री को लिखा । हमारे अनुरोध पर नागरी प्रचारिणी सभा ने रीवां वाली प्रति का आदि अन्त का पाठ भेजने की कृपा की। इसके कुछ दिन पश्चात् ही क्षेत्र के अनुसन्धान विभाग को देखने के लिये श्री नाइदाजी का आगमन हुआ और वे रीवा बाली प्रति का श्रादि अन्त का भाग अपने साथ ले गये । तदनंतर नाहटाजी का प्रा म्न-चरित पर एक विस्तृत एवं खोजपूर्ण लेख 'हिन्दी अनुशीलन' वर्प : अङ्क १-४ में 'सम्बत् १३११ में रचित प्रद्य म्न-चरित्र का कर्ता' शीर्षक प्रकाशित हुया । इसके बाद इस रचना को श्री महावीर क्षेत्र की ओर से प्रकाशित कराने का निश्चय किया गया। दो प्रतियां तो हमारे पास पहिले ही से थीं और दो प्रतियां श्री नाहटाजी द्वारा प्राप्त हो गई । नाइटाजी द्वारा प्राप्त इन।

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