Book Title: Pind Niryukti
Author(s): Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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॥ उद्भिन्नदोषनिरूपणम् ॥ गाथार्थः॥३७०॥ अनयोः स्वरूपमाह
हत्थसयं खलु देसो आरेणं होदि देसदेसो तु।
आइण्णे तिण्णि गिहा ते वि य उवयोगेपुव्वागं॥३७१॥ हत्थसयं गाहा। व्याख्या- हस्तशतं खलु देशस्तदारतस्तु देशदेशः। गृहत्रयाभ्याहृतमाचरितं तदप्युपयोगपूर्वकमिति गाथार्थः॥३७१॥ हस्तशतादिसम्भवमाह
परिवेसणपंतीए दूरपवेसे य घंघसालगिहे।
हत्थसयादाइण्णं गहणं परतो उ पडिकुटुं॥३७२॥ परिवेसण० गाहा। व्याख्या- परिवेषणपङ्क्तौ दूरप्रवेशे च घङ्घशालागृहादौ हस्तशतादाचरितं ग्रहणं परतस्तु प्रतिषिद्धमिति गाथार्थः॥३७२॥ तद् आचरितं त्रिधेति। आह च
उक्कोस-मज्झिम-जहण्णगं तु तिविहं तु होइ आइण्णं।
करपरियत्त जहण्णं सयमुक्कोस मज्झिमं सेसं॥३७३॥ उक्कोस० गाहा। व्याख्या- उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्यकं त्रिविधं तु भवत्याचरितम्, करपरिवर्तरूपं जघन्यमुत्कृष्टं हस्तशतादानीतं मध्यमं शेषमिति गाथार्थः॥३७३॥ उक्तमभ्याहृतद्वारम्। इदानीमुद्भिन्नद्वारमाह
पिहिउब्भिण्णकवाडे फासुय अप्फासुए य बोधव्वे।
अप्फासु पुढविमाई फासुय छगणातिदद्दरए॥३७४॥ पिहिउद्भिन्न० गाहा। व्याख्या- उद्भेदनं = उद्भिन्नम्, तद् द्विधा पिहितोद्भिन्नं कपाटोद्भिन्नं च। तत्र पिहितं- स्थगितमुद्भिन्नं = पिहितोद्भिन्नम्, कपाटोत्प्रेरणलक्षणं कपाटोद्भिन्नम्। तत्र पिहितोद्भिन्नं प्रासुकमप्रासुकं च, अप्रासुकं पृथिव्यादि, प्रासुकं गोमय-दर्दरकादि, दईरको वस्त्रचर्मादिबन्धनलक्षण इति गाथार्थः॥३७४॥ अत्र दोषमाह
उब्भिण्णे छक्काया दाणे कयविक्कए य अधिगरणं।
ते चेव कवाडम्मि वि सविसेसा जंतमाईसु॥३७५॥ उद्भिन्ने गाहा। व्याख्या- तत्र चोद्भिद्यमाने षड्जीवनिकायवधो भवति। तथोद्भिन्ने च दानक्रय-विक्रयादिविषयमधिकरणं भवति। त एवाऽनन्तरोक्तदोषाः कपाटोद्घाटनेऽपि, सविशेषतरास्तु यन्त्रकपाटादिष्विति गाथार्थः॥३७५॥ षड्जीवनिकायवधसम्भवमाह
सच्चित्तपुढविलितं लेलु सिलं वावि दाउमोलित्तं ।
सच्चित्तपुढविलेवो चिरं पि उदगं अचिरलित्ते॥३७६॥ (टि०) १. य जे१ को० ॥ २. ग काऊणं खं० जे१ को०॥ ३. य खं०॥ ४. ०लादौ गृहादौ ला०॥ ५. ०क्कोसेयरं मज्झं जे१ को०॥

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