Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् व्याख्या) (१४) अष्टाध्यायीभाष्य ।
स्वामी दयानन्द ने अपने गुरुवर की आज्ञा के पालन में तत्पर होकर इस प्रकार से अष्टाध्यायी आदि आर्षग्रन्थों के अध्ययन का पथ प्रशस्त कर दिया।
४. पण्डित उदयप्रकाश ___आपका जन्म मथुरा के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आप मथुरा के कौमुदी-अध्यापकों में सर्वश्रेष्ठ अध्यापक माने जाते थे। समस्त टीका-ग्रन्थ उनकी जिहा पर नाचते थे। इनसे दण्डी जी का कौमुदी आदि ग्रन्थों का खण्डन सहा न गया अत: संवत् १९२० में इनका दण्डी जी से एक शास्त्रार्थ निश्चित होगया। निश्चय हुआ कि जो हारे वह दूसरे का शिष्य बन उससे पढ़े और उसके सिद्धान्त का अनुयायी बने। इस शास्त्रार्थ में दण्डी जी से परास्त होकर इन्होंने दण्डी जी का शिष्यत्व स्वीकार किया और उनसे अष्टाध्यायी और महाभाष्य पढ़े और आजीवन उनका प्रचार किया।
पं० उदयप्रकाश के एक अन्तरंग सखा पं० मणिराम व्याकरण, काव्यशास्त्र और तर्कभाषा के महान् विद्वान् थे। वे पं० उदयप्रकाश के प्रभाव से दण्डी जी के शिष्य बन गए थे। एक बार पं० मणिराम ने दण्डी जी से कहा था- भगवन् ! मेरे सखा पं० उदयप्रकाश जी जिस दिन से आपके पास अध्ययन करते हैं, उसी दिन से मैं भी आपका छात्र हूं। मैं दो-दो चार-चार मास मथुरा में रहकर आपसे अष्टाध्यायी और महाभाष्य पढूंगा। ___आपने स्वामी दयानन्द के वेदभाष्य के विरोध में यजुर्वेद की स्वर-संचारिणी व्याख्या लिखी थी। यह लीथो प्रेस में छपी थी। इस ग्रन्थ की एक प्रति रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ (सोनीपत) के संग्रह में विद्यमान है।
५. पण्डित गंगादत्त
(स्वामी शुद्धबोध तीर्थ) आपका जन्म ग्राम बैलोन जिला बुलन्दशहर (उ०प्र०) में १८६६ ई० में हुआ। आपके पिता पं० हेमराज वैद्य एक सनाढ्य ब्राह्मण थे। आपने चौथी श्रेणी तक ग्राम में ही शिक्षा प्राप्त की। खुर्जा में पं० हरसहाय गौड़ भटियाना से लघु कौमुदी तथा पं. किशोरीलाल से ज्योतिष पढ़ी। तत्पश्चात् आपने १८८७ ई० से १८८९ तक मथुरा में श्री दण्डी जी के शिष्य पं० उदयप्रकाश से अष्टाध्यायी का अध्ययन किया। आप महाभाष्य पर्यन्त व्याकरण-अध्ययन की इच्छा से मथुरा गए थे किन्तु आपके गुरुवर पं० उदयप्रकाश जी का १९४५ वि० कार्तिक शु० ९ सोमवार (दिनांक १२।११।१८८८ ई०) को स्वर्गवास होगया और आपकी इच्छा पूर्ण न हो सकी। अत: आप १८८८ ई० में विद्या-अध्ययन के लिए काशी चले गए। आपने वहां पं० काशीनाथ शास्त्री से नव्यव्याकरण और दर्शनशास्त्र
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