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परिचय - आचार्यश्री विद्यासागर जी ने श्रमणशतक, भावनाशतक, निरंजनशतक, परिपहजयशतक एव सुनीतिशतक में तथा इनके दीक्षा एवं शिक्षा गुरु महाकवि आचार्य प्रवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने अपने जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय एवं भद्रोटय संस्कृत महाकाव्या तथा दयोदय जैसे चम्पूकाव्य में कुछ ऐसे शब्दों के भी प्रयोग किये हैं, जो सामान्यतः तदिवपयक अर्थों में अप्रचलित से हैं। संस्कृत साहित्यकारों एवं इतिहासकारों का जैन कोश वाइ.मय से विशेष परिचय नहीं हो पाने के कारण से भी इस अभाव की पूर्ति नहीं हो सकी। उपरोक्त दोनो आचार्यों ने अपने साहिल शब्द-अर्थ की प्रसिद्धि में आचार्य श्रीधरसेन के "विश्वलोचनकोश" का उपयाग विशेष रूप से किया है। विश्वलाचन कांश संस्कृत विद्वज्जगत् के बीच में नहीं पहुंच पाने के कारण उनके द्वारा उसका सम्यक्पारायण तथा ऐतिहासिक काल (समय) निर्धारण नहीं हो सका! वैसी ही स्थिति महाकवि धनंजय के द्वारा रचित "नाममालाकोश" व "अनेकार्थनाममाला" के साथ भी
अतएव उक्त कोशकारों के सम्बन्ध में यहां संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है..ताकि संस्कृत साहित्य के अध्येता इन कोशकारों एवं उनकी कतियों से भी परिचित हो सके।
आचार्य श्रीधरसेन -
श्रीधरसेन जैन वाइ. मय में कोश-साहित्य के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके द्वारा रचित 'विश्वलोचन' कोश प्राप्त है। कोश के अन्त में प्राप्त प्रशस्ति के अनुसार इसका अपर नाम 'मुक्तावलि-कोश' भी है। सेनसंघ के आचार्य मुनिसेन को आपने गुरु के रूप में स्मरण किया है जो कुशल कवि एवं नैयायिक थे। स्व. पं परमानन्द शास्त्री के अनुसार नेमिकुमार के पुत्र कवि वाग्भट ने 'काव्यानुशासन' की वृत्ति में पुष्पदन्त के साथ मुनिसेन और उनकी रचनाओं की ओर संकेत किया है, जो आज अनुपलब्ध है। बादशांग के कुछ अंशों तथा पट्खण्डागम के ज्ञाता घरसेनाचार्य से भिन्न श्रीधरसेन काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् और आशुकवि भी थे। नानाशास्त्रों के पारगामी विद्वान् होने के साथ ही श्रीधरसेन बड़े-बड़े राजाओं के श्रद्धास्पद एवं पूज्य भी थे।
विश्वलोचन कोश में 2453 श्लोक हैं। इसमें स्वरवर्ण और ककार आदि के वर्णक्रम से शब्दों का संकलन किया गया है। यथा 'साधन' शब्द में चूंकि 3 अक्षर हैं अतः यह कोश में नान्तवर्ग के 'न तृतीयान्त' में प्राप्त होगा। शब्दों को कोश में ढूँढने/प्राप्त करने की. विशिष्ट प्रक्रिया इसकी विशिष्टता है। नानार्थ कोशों में यह सबसे बड़ा कोश है। कोश की मौलिक विशेषता के सम्बन्ध में इसके संपादक श्री नन्दलाल शर्मा ने लिखा है - "संस्कृत में कई नानार्थ कोश है, परन्तु जहां तक हम जानते हैं कोई भी इतना बड़ा और इतने अधिक अर्थों को बतलाने वाला अन्य नहीं है। इसमें एक शब्द के अधिक से अधिक अर्थ बतलाये गये हैं। उदाहरण के लिए 'रुचक' शब्द को लीजिये। जहां 'अमरकोश' में इसके चार व मेदिनी' में दश अर्थ बतलाये गये हैं, वहां 'विश्वलोचन' में बारह अर्थ बतलाये गये हैं. यही इस कांश की विशेषता है।"
प्रशस्ति के चतुर्थ पद्य में 'पदविदां च पुरे निवासी वाक्य से श्रीधरसेन का निवास स्थान ज्ञात होता है, पर उसके सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण इस समय कहना शक्य नहीं है। छटवें पद्य में कवि ने स्वयं लिखा है कि मैंने इस कोश की रचना कवि नागेन्द्र और अमरसिंह के कोशों का सार लेकर की है। कोश अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ● विश्वलोचनकोश, रचयिता -आचार्य श्रीधरसेन, संश. श्री नन्दलाल शर्मा, प्रका. निर्णयसागर प्रेस, बंबई, प्रथम संस्करण 24381 * जैनधर्म का प्राचीन इतिहास (भाग 2), लेखक-पं. परमानन्द शास्त्री, प्रका. मेसर्स रमेशचन्द्र जैन, मोटरवाले, राजपुर रोड़, दिल्ली, वीरनिर्वाण संवत् 2500, पृष्ठ 418। ...