Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६
उक्त पर्यायवाची नामकरण होने का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
सत्ता में रहे हुए कर्मदलिकों को ऐसी स्थिति में स्थापित करना कि जिनमें उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रम के सिवाय अन्य कोई करण नहीं लगे । देशोपशमना को सर्वोपशमना की तरह सर्वथा और असंख्यात गुणाकार रूप से दलिकों की उपशमना नहीं होने से देशोपशमना और अगुणोपशमना कहते हैं। जिसका देशोपशम हुआ हो, उसका उदय भी हो सकता है, इसीलिये अनुदयोपशम ऐसा भी नाम है तथा सर्वोपशम होने के बाद जैसे गुण का पूर्णरूपेण स्वरूप प्रगट होता है, वैसा देशोपशमना में नहीं होता है, इसीलिये देशोपशमना को अप्रशस्तोपशमना भी कहते हैं।
सर्वोपशमना को प्रशस्तोपशमना आदि कहने का कारण यह हैसत्ता में विद्यमान द्वितीय स्थितिगत दलिक अन्तरकरण करने के बाद पूर्व-पूर्व समय की अपेक्षा उत्तरोत्तर समय में असंख्यात-असंख्यात गुणाकार रूप से उपशांत करके इस प्रकार की स्थिति में स्थापित किया जाता है कि जिसमें संक्रमादि कोई भी करण लागू नहीं पड़ता है और न अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उदय भी होता है । इसीलिये उसे सर्वोपशमना और उदयोपशमना कहा जाता है। उपशमन क्रिया प्रारम्भ होने के बाद प्रतिसमय असंख्यात-असंख्यातगुण दलिक उपशमित होते हैं, इसीलिये गुणोपशमना यह भी नाम है और सर्वोपशमना होने के बाद वह कर्म जिस गुण को आवृत करता है वह गुण सम्पूर्ण रूप से अनावृत हो जाता है, इसीलिये प्रशस्तोपशमना यह चौथा पर्याय नाम है।
देशोपशमना दो प्रकार से होती है-१ यथाप्रवृत्त आदि करण पूर्वक और २ करण के सिवाय । किन्तु सर्वोपशमना तो यथाप्रवृत्तादि तीन करणों से ही होती है और उनके द्वारा की जाने वाली उपशमना करणकृत उपशमना कहलाती है।
१ यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन करण हैं । इनका
स्वरूप आगे बताया जा रहा है ।
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