Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२, ६३, ६४
उदीरणा, ४. आनुपूर्वी संक्रमण, ५. लोभ के संक्रमण का अभाव, ६. बंधे हुए दलिक की छह आवलिका जाने के बाद उदीरणा और, ७. नपुसक वेद की पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर समय में अन्तपर्यन्त असंख्यातगुणाकार रूप से उपशमना ।
विशेषार्थ-अन्तरकरण के साथ ही स्थितिघात और अपूर्वस्थितिबंध की निष्पत्ति-पूर्णता होती है। यानि जितने काल में एक स्थितिखंड का घात करता है अथवा अपूर्व स्थितिबंध करता है, उतने ही काल में अन्तरकरण क्रिया पूर्ण करता है। इन तीनों को एक साथ प्रारंभ करता है और एक साथ ही पूर्ण करता है। स्थितिघात जितना ही काल होने से अन्तरकरण क्रिया काल में हजारों बार रसघात होता है।
अन्तरकरण में दलिकनिक्षेप का क्रम इस प्रकार है -
जिस कर्म का उस समय बंध और उदय दोनों हों उसके अन्तरकरण के दलिक प्रथमस्थिति और द्वितीयस्थिति दोनों में निक्षिप्त करता है । अर्थात् कितने ही दलिकों को प्रथमस्थिति के साथ भोगा जा सके, वैसे करता है और कितनेक को द्वितीयस्थिति के साथ भोगा जा सके, वैसे करता है। जैसे पुरुषवेद के उदय में श्रीणि आरम्भ करने वाला पुरुषवेद के दलिकों को दोनों स्थितियों में निक्षिप्त करता है। जिस कर्म का केवल उदय हो किन्तु बंध नहीं होता, उसके अन्तरकरण के दलिकों को प्रथमस्थिति में ही डालता है। जैसे स्त्रीवेद के उदय में श्रोणि आरंभ करने वाला स्त्रीवेद के दलिक को प्रथमस्थिति में डालता है। जिस कर्म का उस समय केवल बंध होता हो, उदय नहीं होता उसके अन्तरकरण सम्बन्धी दलिकों को द्वितीयस्थिति में ही डालता है, किन्तु प्रथम स्थिति में निक्षेप नहीं करता है। जैसे संज्वलन क्रोध के उदय में श्रोणि आरंभक मानादि के अन्तरकरण के दलिकों को द्वितीयस्थिति में ही डालता है और जिस कर्म का उस समय बंध या उदय कोई एक भी नहीं होता, उसके अन्तरकरण के
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