Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह (8)
मोहनीय कर्म की अन्य किसी प्रकृति का बंध नहीं होने से संक्रमित नहीं करता है ।
संज्वलन क्रोध के बंधविच्छेद के समय चारों संज्वलन कषायों का स्थितिबंध चार मास प्रमाण और ज्ञानावरण आदि छह कर्मों का स्थिति-बंध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है । जिस समय संज्वलन क्रोध के बंधोदय उदीरणा का विच्छेद होता है, उसके बाद के समय से मान की द्वितीय स्थिति में रहे दलिकों को आकृष्ट कर अन्तरकरण रूप खाली जगह में लाकर इस गुणस्थान में जितना काल मान के उदय का रहने वाला है, उससे एक आवलिका अधिक काल तक में पूर्व-पूर्व के समय से उत्तर- उत्तर के समय में असंख्यात गुणाकार दलिक स्थापित कर प्रथम स्थिति बनाकर उनका उदय करता है |
संज्वलन मानोदय के प्रथम समय में मान आदि तीन का स्थितिबंध चार मास प्रमाण होता है और उसी समय से अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्याना - वरण और संज्वलन इन तीनों प्रकार के मान को उपशांत करना प्रारम्भ करता है । जब मान की प्रथम स्थिति समयन्यून तीन आवलिका रहती है तब संज्वलन मान अपतद्ग्रह हो जाता है, जिससे उस समय से अन्य प्रकृति के दलिक संज्वलन मान में संक्रमित नहीं होकर माया और लोभ में संक्रमित होते हैं और संज्वलन मान की प्रथम स्थिति दो आवलिका शेष रहे तब आगाल रुक जाता है और प्रथम स्थिति एक आवलिका शेष रहे तब अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण मान का सम्पूर्ण रूप से उपशम हो जाता है और संज्वलन मान के बंध, उदय, उदीरणा का विच्छेद होता है और मान की प्रथम स्थिति में एक आवलिका और द्वितीय स्थिति में समयन्यून दो आवलिका काल में बंधे दलिक के बिना संज्वलन मान का भी सर्व दलिक उपशमित हुआ होता है ।
संज्वलन मान के बन्धविच्छेद के समय संज्वलन मान आदि तीन कषाय का स्थितिबन्ध दो मास प्रमाण और शेष ज्ञानावरण आदि कर्मों का संख्यात वर्ष प्रमाण होता है । संज्वलन मान के बन्धविच्छेद के बाद के समय में संज्वलन माया की द्वितीय स्थिति में रहे दलिकों को आकृष्ट कर नौवें गुणस्थान में जितने काल माया का उदय रहने वाला है, उतने से आवलिका अधिक काल प्रमाण अन्तरकरण रूप खाली स्थान में दलिकों को लाकर गुण
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