Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 209
________________ १८० पंचसंग्रह (8) नहीं आते हैं, जिससे आगाल रुक जाता है, किन्तु उदीरणा चालू रहती है, तथा प्रथम स्थिति समय न्यून दो आवलिका प्रमाण शेष रहे तब पुरुषवेद अपतद्ग्रह होता है, जिससे उस समय से हास्यषट्क के दलिक पुरुषवेद में नहीं परन्तु संज्वलन कोधादि में संक्रमित होते हैं एवं एक समय प्रमाण परुषवेद की प्रथम स्थिति भोगने के बाद आत्मा अवेदक होती है और जिस समय आत्मा अवेदक होती है, उस समय द्वितीय स्थिति में दो समय न्यून दो आवलिका प्रमाण में बंधा हुआ पुरुषवेद का दलिक अनुपशांत होता है। क्योंकि जिस समय जो कर्म बंधता है अथवा अन्य प्रकृति में से संक्रमित होकर आता है, उस समय से एक आवलिका प्रमाण काल तक उसमें कोई करण नहीं लगता है। इसलिये बंधावलिका अथवा संक्रमावलिका व्यतीत होने के बाद दूसरी आवलिका के प्रथम समय से उसे संक्रमित अथवा उपशमित करने की क्रिया शुरू करता है और उसे सम्पूर्ण संक्रमित करते अथवा उपशमित करते दूसरी आवलिका पूर्ण हो जाती है, अर्थात् दूसरी आवलिका के चरम समय में सम्पूर्ण संक्रम या उपशम हो जाता है। इसी प्रकार संज्वलन क्रोधादि चार कषायों का बंधविच्छेद से बाद के समय में दो समयन्यून दो आवलिका प्रमाण काल में बँधे क्रोधादि के दलिक भी अनुपशांत होते हैं और जिस समय पुरुष वेद का सोलह वर्ष प्रमाण बंध होता है उस समय चारों संज्वलन कषाय का संख्यात हजार वर्ष प्रमाण स्थितिबंध होता है। अवेदक के प्रथम समय में दो समयन्यून दो आवलिका प्रमाण काल में बँधे पुरुषवेद का जो दलिक अनुपशांत है, उसे उसी समय न्यून दो आवलिका काल तक क्रमशः पूर्व-पूर्व के समय से उत्तर के समय में असंख्यात गुणाकार रूप से उपशमित करता है और बध्यमान संज्वलन कषायों में यथाप्रवृत्त संक्रम द्वारा पहले समय में अधिक और उसके उत्तर-उत्तरवर्ती समय में विशेष हीन-हीन संक्रमित करता है । इस तरह जिस समय अवेदक होता है, उस समय से दो समयन्यून दो आवलिका के अन्त में पुरुषवेद सम्पूर्ण उपशांत होता है और उस समय चारों संज्वलन कषायों का स्थितिबंध बत्तीस वर्ष प्रमाण तथा मोहनीय के बिना शेष कर्मों का संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है। अवेदक के प्रथम समय से अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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