Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 210
________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ८ १८१ संज्वलन इन तीनों क्रोध को एक साथ उपशमित करने की शुरुआत करता है और उत्तरोत्तर प्रत्येक समय असंख्यातगुण उपशांत करता है एवं इन तीनों क्रोधों की उपशमन क्रिया शुरू करता है उस समय जो स्थितिबंध होता है, उस स्थितिबंध के पूर्ण होने के बाद चारों संज्वलन कषायों का नया स्थितिबंध संख्यातभाग हीन और शेष कर्मों का संख्यातगुण हीन यानि संख्यातवें भाग प्रमाण करता है। संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थिति समयन्यून तीन आवलिका शेष रहने पर संज्वलन क्रोध अपतद्ग्रह होता है, जिससे उस समय से सत्तागत अन्य प्रकृतियों के दलिक संज्वलन क्रोध में संक्रमित नहीं होते हैं परन्तु मान आदि तीन में संक्रमित होते हैं। संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थिति दो आवलिका प्रमाण शेष रहे तब आगाल होना बंद हो जाता है और प्रथम स्थिति एक आवलिका बाकी रहे तब संज्वलन क्रोध के बंध-उदय-उदीरणा एक साथ विच्छिन्न होते हैं और उस समय अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण क्रोध सम्पूर्ण उपशांत होता है और जिस समय संज्वलन क्रोध का बंधविच्छेद होता है उस समय प्रथम स्थिति में एक आवलिका और द्वितीय स्थिति में समयन्यन दो आवलिका प्रमाण काल में बंधे दलिक को छोड़कर शेष अन्य सब दलिक उपमित हुआ होता है । प्रथम स्थितिगत आवलिका को स्तिबुक संक्रम से मान में, मान की प्रथम स्थितिगत आवलिका को माया में, माया की लोभ में और बादर लोभ की प्रथम स्थितिगत आवलिका को दसवें गुणस्थान में किट्टियों में संक्रमित कर भोगकर दूर करता है। ___ क्रोध की द्वितीय स्थिति में बंधविच्छेद के बाद के समय में जो समय न्यून दो आवलिका प्रमाणकाल में बंधा दलिक अनुपशांत है उसे बंधविच्छेद के बाद के समय से दो समयन्य न दो आवलिका काल में पुरुषवेद की तरह उपश मित करता है और यथाप्रवत्त संक्रम से बध्यमान प्रकृतियों में संक्रमित करके पूर्ण रूप से उपशांत करता है। इसी प्रकार मान और माया की द्वितीय स्थिति में बंधविच्छेद के बाद के समय के दलिक के लिये भी समझना चाहिए। लोभ के बंधविच्छेद के बाद के समय में जो दो समयन्यू न दो आवलिका प्रमाण काल में बंधे दलिक अनुपशांत होते हैं, उनको दसवें गुणस्थान में उतने ही काल में पूर्ण रूप से स्वस्थान में उपशमित करता है, परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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