Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 217
________________ १८८ पंचसंग्रह (8) और निकाचना इन छह में से कोई भी करण नहीं लगता है तथा इस अन्तमहर्त काल में मोहनीय कर्म की किसी भी प्रकृति का उदय भी नहीं होता है, मात्र सत्तागत मिथ्यात्व और मिश्र का संक्रम और दर्शन मोहत्रिक की अपवर्तना होती है। ___ यह क्रोधोदय से श्रेणि मांड़ने वाले की अपेक्षा समझना चाहिए। मानोदय से श्रेणि मांड़ने वाले को नपुंसकवेद की तरह तीनों क्रोध एक साथ उपशांत होते हैं । मायोदय से श्रेणि पर आरूढ़ होने वाले को पहले तीन क्रोध, बाद में तीन मान तथा इसी प्रकार लोभोदय से श्रेणि मांडने वाले को पहले तीन क्रोध, फिर तीन मान और इसके बाद तीन माया उपशांत होती हैं और लोभ को तो पहले की तरह ही उपशमित करता है । ___क्रोधोदय से श्रेणि मांडने वाले को जहाँ क्रोध का बंधविच्छेद होता है, उसी स्थान पर मान से श्रेणि मांड़ने वाले के भी क्रोध का बंधविच्छेद होता है और जिस समय क्रोध का बंधविच्छेद होता है, उसी समय समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ क्रोध जो अनुपशांत होता है, उसको बाद के समय से दो समयन्य न दो आवलिका काल में क्रोधोदय से श्रेणि मांड़ने वाले की तरह उपशमित करता है और यथाप्रवृत्त संक्रम से संक्रमित करता है। ___ इसी तरह मायोदय से श्रेणि मांडनेवाले को भी जिस स्थान पर क्रोध का बंधविच्छेद होता है, उसी स्थान पर क्रोध का और जिस जगह मान का बंधविच्छेद होता है उसी जगह मान का और लोभोदय से श्रेणि मांड़ने वाले को क्रोधादि तीन का क्रोधोदय से श्रेणि मांड़ने वाले को जिस-जिस स्थान पर बंध-विच्छेद होता है, उसी-उसी स्थान पर ही क्रमशः संज्वलन क्रोध, मान और माया का बंध-विच्छेद होता है और अपने-अपने बंधविच्छेद के समय समयन्यन दो आवलिका काल में बंधी हुई उस-उस कषाय का जो दलिक अनुपशांत होता है उसे अपने-अपने बंध-विच्छेद से बाद के समय से दो समयन्यून दो आवलिका काल में पहले के तरह ही उपशमित करता है और यथाप्रवृत्त संक्रम से संक्रमित करता है। अन्तर्मुहुर्त प्रमाण ग्यारहवें गुणस्थान का काल पूर्ण होने के पहले ही यदि मनुष्य भव का आयुष्य पूर्ण हो जाये तो काल करके सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होता है और वह भव के क्षय से पतन हुआ कहलाता है और मरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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