Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 141
________________ ११२. पंचसंग्रह : & उसके साथ भोगने के लिये अपूर्व असंख्यातवें भाग को उदीरणाकरण द्वारा ग्रहण करता है । यानि दूसरे समय में उदयप्राप्त जितनी किट्टियां होती हैं, उनके असंख्यातवें भाग को उपशमित कर डालता है, जिससे उतनी किट्टियों का फलानुभव नहीं करता, परन्तु शेष किट्टियों का फलानुभव करता है । इस प्रकार प्रत्येक समय उदयप्राप्त किट्टियों के असंख्यातवें भाग को छोड़ता और अपूर्व असंख्यातवें भाग को भोगने के लिए उदीरणाकरण द्वारा ग्रहण करता सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त जाता है तथा द्वितीयस्थिति में रहे हुए अनुपशान्त समस्त दलिकों को (पृष्ठ १११ का शेष फुटनोट) इसके उत्तर में यह सम्भावना हो सकती है कि दसवें गुणस्थान की विशुद्धि के माहात्म्य से प्रथमस्थिति की उदयप्राप्त किट्टियों के असंख्यातवें भाग को भी द्वितीयस्थितिगत किट्टियों के साथ उपशमित करता है । जैसे समुद्घात के माहात्म्य से पुण्य प्रकृति के रस को पाप रूप करके भोगता है । अथवा जो दसवें गुणस्थान के कालप्रमाण प्रथमस्थिति की, उसे तो भोगकर क्षय करता है परन्तु सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में उदय आने योग्य जो किट्टियाँ दूसरी स्थिति में रही हुई हैं, उनके असंख्यातवें भाग को उपशमाता और अपूर्व असंख्यातवें भाग को उदीरणाकरण द्वारा ग्रहण कर अनुभव करता है । इस प्रकार प्रति समय करते हुए दसवें गुणस्थान के चरमसमय तक जाता है । यहाँ चरम समय तक उदीरणाकरण द्वारा किट्टियों को ग्रहण करना कहा है, परन्तु प्रथमस्थिति की एक आवलिका बाकी रहे और उदीरणा नहीं होती यह नहीं कहा है, जिससे ऐसा मालूम होता है कि किट्टिकरणाद्धा काल में दसवें गुणस्थान में अनुभव करने योग्य जो किट्टियाँ की हैं उनमें से ऊपर कहे अनुसार उपशमाना, उनको उदीरणाकरण द्वारा खींचकर अनुभव करना, इस प्रकार क्रिया करता चरम समय पर्यन्त जाता है । तत्व केवलीगम्य है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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