Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 205
________________ परिशिष्ट ८ चारित्रमोहनीय को सर्वोपशमना विधि का संक्षिप्त सारांश चारित्रमोहनीय की उपशमना करने के लिये छठे सातवें गुणस्थान में हजारों बार गमनागमन करके आत्मा पूर्व में बताये गये यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करती है। __ यथाप्रवृत्तकरण अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में, अपूर्वकरण अपूर्वकरण गुणस्थान में और अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में करने से यह तीन गुणस्थान तीन करण रूप हैं । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में स्थितिघात आदि पदार्थ होते हैं। परन्तु अपूर्वकरण के प्रथम समय से सत्ता में वर्तमान सभी अशुभ प्रकृतियों का बध्यमान स्वजातीय प्रकृतियों में गुणसंक्रम होता है तथा अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी विशेषता इस प्रकार है इस करण के प्रथम समय से सत्तागत सर्व कर्म प्रकृतियों के किसी भी दलिक में देशोपशमना, निद्धत्ति और निकाचना नहीं होती है-एवं अपूर्वकरण के प्रथम समय में आयु कर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की जो अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थितिसत्ता और स्थितिबन्ध होता है, उसकी अपेक्षा इस गुणस्थान में प्रथम समय में संख्यातगुण हीन अन्तःकोड़ा-कोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थितिसत्ता और स्थितिबन्ध होता है अर्थात् संख्यातभाग प्रमाण होता है। __ यद्यपि यहाँ सामान्य से स्थितिसत्ता और स्थितिबन्ध समान होता है, फिर भी बन्ध की अपेक्षा सत्ता बहुत अधिक होती है एवं सामान्य से सातों कर्म की सत्ता और बन्ध समान बताने पर भी स्थिति के अनुसार सत्ता और स्थितिबन्ध में स्थितिघात आदि के द्वारा विविध प्रकार के परिवर्तन होते रहने से अन्त में मोहनीय कर्म का नवीन स्थितिबन्ध सबसे अल्प, उसकी अपेक्षा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय इन तीन का असंख्यातगुण किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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