Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 201
________________ १७२ पंचसंग्रह (६) जिस समय मिश्र मोहनीय की उदयावलिका बाकी रहती है, उस समय सम्यक्त्वमोहनीय की स्थिति सत्ता आठ वर्ष प्रमाण रहती है। उस समय से उस आत्मा के विघ्नरूप सर्वघाती मिथ्यात्व और मिश्र का सर्वथा क्षय हुआ है और सम्यक्त्वमोहनीय का भी · अन्तर्मुहूर्त में अवश्य क्षय होने वाला होने से निश्चय नय के मत अनुसार वह आत्मा दर्शनमोह की क्षपक कहलाती है । जिस समय सम्यक्त्वमोहनीय की आठ वर्ष प्रमाण स्थितिसत्ता रहती है, उस समय से सम्यक्त्वमोहनीय के द्विचरम स्थितखंड तक अन्तर्मुहूर्त में अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त प्रमाण वाले अनेक स्थितिखंड उत्कीर्ण कर-करके नाश करता है। ये प्रत्येक स्थितिखंड अन्तर्महर्त प्रमाण वाले होने पर भी अन्तर्महर्त के असंख्यात प्रकार होने से पहले स्थितिखंड की अपेक्षा दूसरा स्थितिखण्ड असंख्यातगुण बड़ा अन्तर्महर्त प्रमाण होता है। इस प्रकार द्विचरम स्थितिखंड तक समस्त स्थितिखंड पूर्व-पूर्व के स्थितिखण्ड की अपेक्षा असंख्यात बड़े-बड़े अन्तर्मुहूर्त प्रमाण वाले होते हैं। प्रत्येक स्थितिखण्ड के दलिकों को नीचे उतार कर उदयसमय से गुणश्रेणि के चरम समय तक पूर्व-पूर्व के समय से उत्तरोत्तरवर्ती समयों में असंख्यात गुणाकार रूप से स्थापित करता है और गुणश्रेणि के चरम समय ऊपर के प्रथम समय से जिन स्थितिखण्डों का घात करता है, उनके नीचे के चरम स्थितिस्थान तक विशेष हीन-हीन स्थापित करता है, परन्तु जिस स्थितिखण्ड का घात करता है, उन स्थितिस्थानों में स्थापित नहीं करता है । द्विचरम स्थितिखण्ड से चरम स्थितिखण्ड संख्यातगुण बड़ा होता है और चरम स्थितिखण्ड के साथ गुणश्रेणि का भी शीर्ष स्थानीय अन्तिम संख्य तवाँ भाग नष्ट हो जाता है। गणश्रेणि के नष्ट होने पर अन्तिम संख्यातवें भाग की अपेक्षा भी चरम स्थितिखण्ड संख्यातगुण बड़ा है। चरम स्थितिखण्ड के दलिकों को वहाँ से उतारकर उनके साथ अर्थात् चरम स्थितिखण्ड के साथ जिस गुणणि का भाग नष्ट नहीं होता है, उस भाग के चरम समय तक उदयसमय से लेकर असंख्यात गुणाकार रूप से स्थापित करता है। इस तरह से चरम स्थितिखण्ड का भी नाश करता है और इस चरम स्थिति खण्ड का नाश हो तब क्षपक कृतकरण कहलाता है। अनिवृत्तिकरण में चरम स्थितिखण्ड का नाश होने के बाद सम्यक्त्वJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224