Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 170
________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०४ १४१ ठिइबंधउदीरणतिविहसंकमे होंतिऽसंखगुण कम सो। अज्झवसाया एवं उवसामणमाइएसु कमा ॥१०४॥ शब्दार्थ-ठिइबंधउदीरणतिविहसंक मे-स्थितिबंध, उदीरणा, त्रिविध संक्रम में, होति-होते हैं, असंखगुण-असंख्यातगुण, कमसो-अनुक्रम से, अज्झवसाया-अध्यवसाय, एवं-और, उवसामणमाइएसु-उपशमना आदि में, कमा-क्रमशः। गाथार्थ-स्थितिबंध, उदीरणा, त्रिविध संक्रम और उपशमना आदि में अध्यवसाय अनुक्रम से असंख्यातगुण हैं। विशेषार्थ-गाथा में आगत ठिइबंध-स्थितिबंध शब्द से स्थिति और अनुभाग के बंध में कषाय रूप कारण समान होने से अनुभागबंध भी ग्रहण किया गया है । योग से होने वाले प्रकृति और प्रदेश बंध यहाँ ग्रहण नहीं किये हैं इसीलिए स्थितिबंध यह पद रखा है। यानि स्थितिबंध और अनुभाग बंध के अर्थात् बंधनकरण के हेतुभूत अध्यवसाय अल्प हैं। उनसे उदीरणा के योग्य अध्यवसाय असंख्यातगुण हैं, उनसे उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रम इन तीन करणों के समुदित अध्यवसाय असंख्यातगुण हैं, उनसे उपशमनायोग्य अध्यवसाय असंख्यातगुण हैं, उनसे निद्धत्तियोग्य अध्यवसाय असंख्यातगुण हैं और उनसे भी निकाचनायोग्य अध्यवसाय असंख्यातगुण हैं। इस प्रकार आठों करणों का स्वरूप जानना चाहिये । अब क्रम प्राप्त सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार का विवेचन करेंगे। ॥ उपशमनादि करणत्रय समाप्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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