Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 188
________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३ १५६ बढ़ते-बढ़ते इस करण के अन्तिम समय रूप पच्चीसवें समय में दो सौ बीस अध्यवसाय होते हैं। यहाँ भी प्रत्येक समय के अध्यवसायों में यथाप्रवृत्तकरण के समान सूक्ष्म दृष्टि से असंख्य प्रकार की और स्थूल दृष्टि से छह प्रकार की विशद्धि सम्बन्धी तरतमता होती है और उससे ही यह अध्यवसाय षट्स्थान वृद्ध अथवा षट्स्थान पतित कहलाते हैं । इस करण में प्रत्येक समय अध्यवसाय नितान्त नये होने से अपूर्वकरण के प्रथम समय के जो एक सौ अध्यवसाय हैं, उनमें के द्वितीयादि अध्यवसायों की अपेक्षा प्रथम अध्यवसाय की विशुद्धि अत्यन्त अल्प है, फिर भी यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि की अपेक्षा तो अनन्तगुण होती है और अपूर्वकरण के प्रथम समय के प्रथम अध्य वसाय की विशुद्धि की अपेक्षा सर्वोत्कृष्ट अन्तिम एक सौवें अध्यवसाय की विशुद्धि अनन्तगुण है और उससे प्रथम समय के एक सौवें अध्यवसाय की विशद्धि से दूसरे समय की जधन्य, उससे उसी दूसरे समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण होती है, उससे तीसरे समय की जघन्य और उससे भी उसी तीसरे समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण है, इस प्रकार पूर्व-पूर्व के समय से उत्तर-उत्तर के समय की जघन्य और उसके बाद उसी समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण होने से द्विचरम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि से पच्चीसवें समय रूप चरम समय की जघन्य और उससे उस पच्चीसवें समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण होती है तथा इस करण में पूर्व-पूर्व समय से उत्तरोत्तर के समयों में पूर्व में किसी समय न हुए हों ऐसे अनन्तगुण विशुद्धि वाले प्रवर्धमान परिणाम होते हैं, जिससे इस अपूर्वकरण में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रोणि और अपूर्व स्थितिबन्ध ये चार पदार्थ पूर्व में किसी समय नहीं किये हों ऐसे नवीन होते हैं, जिससे इसका नाम अपूर्वकरण यथार्थ है। इन स्थितिघात आदि का स्वरूप सुगम है। स्थितिघात में प्रति समय स्थिति का घात होने से अपूर्वकरण के प्रथम समय में जितनी कर्म की स्थिति सत्ता होती है उससे उसी करण के चरम समय में संख्यातगुण हीन अर्थात् संख्यातवें भाग प्रमाण कर्म की स्थिति सत्ता रहती है। इसी प्रकार से रस बात के लिए समझना चाहिए किन्तु इतना विशेष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org| Jain Education International

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