Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५, ६६
७. नपुसकवेद की असंख्य-असंख्य गुणाकार रूप में उपशमना उपशमक्रिया के चरमसमय पर्यन्त होती है और वह इस प्रकारपहले समय में नपुसकवेद के दलिक स्तोक उपशमित करता है। [उन दलिकों को इस प्रकार से शांत करता है-उनकी ऐसी स्थिति बना देता है कि अन्तमुहूर्त पर्यन्त चारित्रमोहनीय की किसी भी प्रकृति में उदय उदोरणा आदि करण प्रवर्तित नहीं होता है। दूसरे समय में असंख्यातगुण उपशमित करता है । तीसरे समय में उससे असंख्यातगुण उपशमित करता है । इस प्रकार प्रति समय असंख्यात-असंख्यात गुण चरमसमय पर्यन्त उपशमित करता है।
नपुंसकवेद को उपशमित करते जितना काल जाये, उस काल का चरमसमय यहाँ जानना चाहिये तथा जितना दलिक उपशांत करता है, उसकी अपेक्षा परप्रकृति में असंख्यातगुण द्विचरमसमयपर्यन्त संक्रमित करता है और चरम समय में तो अन्यप्रकृति में जितना संक्रमित होता है, उसकी अपेक्षा असंख्यातगुण उपशांत होता है। ___नपुसकवेद की उपशमना के प्रथम समय से लेकर समस्त कर्मों की उदीरणा दलिकों की अपेक्षा अल्प होती है और उदय असंख्यात गुणा होता है । इसका कारण यह है कि गुणश्रेणि द्वारा बहुत-सा दलिक नीचे की स्थितियों में क्रमबद्ध स्थापित होने से उदीरणाकरण द्वारा दूसरीस्थिति में से जितना दलिक खींचकर भोगा जाता है उससे उदय द्वारा असंख्यातगुणा अधिक भोगा जाता है । तथा
अंतरकरणपविठ्ठो संखासखंसमोहइयराणं । बंधादुत्तरबंधो एवं इत्थीए संखंसे ॥६॥ उवसंते घाईणं संखेज्जसमा परेण संखंसो। बंधो सत्तण्हेवं संखेज्जतमंमि उवसंते ॥६६॥
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