Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५४
शब्दार्थ - मोहस्स - मोहनीय का, दोणि पल्ला — दो पल्योपम, संतेविसत्ता में भी, हु ही, एवमेव — इसी प्रकार अप्पनहू - अल्पबहुत्व, पलियमित्तंमि - पल्योपममात्र, बंधे-बंध में, अण्णो– अन्य संखेज्जगुणहीगो
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संख्यातगुणहीन |
गाथार्थ - मोहनीय कर्म का दो पत्योपम स्थितिबंध होता है । सत्ता में भी इसी प्रकार से अल्पबहुत्व जानना चाहिये । पत्योपम मात्र स्थितिबंध होने के बाद अन्य स्थितिबंध संख्यातगुणहीन होता है ।
विशेषार्थ - मोहनीयकर्म का दो पल्योपम का स्थितिबंध होता है । सत्ता में स्थिति का अल्पबहुत्व बंध के क्रमानुसार ही कहना चाहिये | यानि जिसका स्थितिबन्ध अधिक उसकी सत्ता अधिक और जिसका स्थितिबन्ध कम उसकी सत्ता कम जानना चाहिये । वह इस प्रकार - नाम और गोत्र कर्म की सत्ता अल्प, उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय की विशेषाधिक, उससे मोहनीय की अधिक है तथा जिस-जिस कर्म का जब-जब पल्योपम प्रमाण स्थितिबन्ध हो, उसउस कर्म का उस समय से लेकर अन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणहीन संख्यातवें भाग प्रमाण होता है । इसीलिये नाम और गोत्र कर्म का स्थितिबंध पत्योपम प्रमाण जब हुआ, उसके बाद का अन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणहीन होता है। शेष कर्मों का तो अन्य अन्य स्थितिबन्ध पल्योपद्म के संख्यातवें भागहीन होता है । इसके बाद जो होता है, वह इस प्रकार है
एवं तीसाण पुणो पल्लं मोहस्स होइ उ दिवं । एवं मोहे पल्लं से साणं पल्ससंखंसो ॥ ५४ ॥
शब्दार्थ - एवं इसी प्रकार, तीसान -तीस कोडाकोडी सागरोपम स्थिति वालों का, पुणो- पुनः, पल्लं - - पल्योपम, मोहस्स - मोहनीय का, होइ होता है, उ-और, दिवड्ढ डेढ़ एवं इसी प्रकार, मोहे - मोहनीय
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