Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५२
गाथार्थ-इस गुणस्थान में-नौवें गुणस्थान में स्थितिघात उत्कृष्ट से भी पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है। अनेक हजारों स्थितिघात होने के बाद एक-एक कर्म में जो कुछ करता है, उसे आगे कहूंगा।
विशेषार्थ नौवें गुणस्थान में उत्कृष्ट से भी पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण ही स्थितिघात होता है तथा जो बन्ध होता है, उसमें भी पल्योपम के संख्यातवें भाग कम-कम करके अन्य स्थितिबन्ध करता है तथा यद्यपि सामान्यतः सातों कर्मों का स्थितिघात पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण कहा है, तथापि सत्ता में अल्पबहत्व इस प्रकार है नाम और गोत्र कर्म की सत्ता उनके अल्पस्थिति वाले होने से अल्प है, उनसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय की अधिक है, परन्तु तुल्यस्थिति वाले होने से स्वस्थान में परस्पर तुल्य है, उनसे मोहनीय कर्म की सत्ता अधिक है। क्योंकि जिसकी स्थिति अधिक है, उसकी सत्ता भी अधिक और जिसकी स्थिति अल्प उसकी सत्ता भी अल्प होती है । यद्यपि सामान्यतः सत्ता अन्तःकोडाकोडी है, लेकिन वह अल्पाधिक होती है, यह उक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है। ___अब अनेक हजारों स्थितिघात जाने के बाद एक-एक कर्म के सम्बन्ध में जो कुछ भी करता है, उसको स्पष्ट करते हैंकरणस्स संखभागे सेसे य असण्णिमाइयाण समो। बंधो कमेण पल्लं वीसग तीसाण उ दिवड्ढं ॥५२।।
शब्दार्थ-करणस्स-अनिवृत्तिकरण का, संखभागे सेसे—संख्यातवां भाग शेष रहने पर, य-और, असण्णिमाइयाण-असंज्ञी आदि के, समो-समान, बन्धो-बन्ध, कमेण-क्रम से, पल्लं-पल्योपम, वीसगबीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नाम गोत्र का, तीसाण-तीस कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति वाले ज्ञानावरण आदि चार कर्मों का, विवड्ढं- डेढ़ ।
गाथार्थ--अनिवृत्तिकरण का जब संख्यातवां भाग शेष रहे
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