Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२,२३ ३१
गाथार्थ-प्रथम स्थिति के चरम समय में मिथ्यात्व के उदय में रहते द्वितीय स्थिति के अनुभाग-रस को तीन प्रकार का करता है। उसमें सम्यक्त्वमोहनीय को देशघातीरसयुक्त और मिश्र तथा मिथ्यात्वमोहनीय को सर्वघातीरसयुक्त करता है।
प्रथम समय में सम्यक्त्वमोहनीय में स्तोक-अल्प और मिश्रमोहनीय में असंख्यातगुण संक्रम होता है। उससे दूसरे समय में सम्यक्त्वमोहनीय में असंख्यातगुण, इस प्रकार प्रतिसमय अन्तमुहूर्त पर्यन्त संक्रम होता है और उसके बाद विध्यातसंक्रम होता है।
विशेषार्थ-प्रथम स्थिति के चरम समय में मिथ्यात्व के उदय में वर्तमान मिथ्या दृष्टि द्वितीयस्थितिसम्बन्धी कर्मपरमाणुओं के रस को विशुद्धि के बल से तीन प्रकार का करता है । अर्थात द्वितीय स्थिति में वर्तमान मिथ्यात्वमोहनीय के दलिकों को रसभेद से तीन विभागों में विभाजित कर देता है। यह क्रिया अनिवृत्तिकरण के चरमसमय सेप्रथम स्थिति को अनुभव करते-करते एक समय शेष रहे, उस अन्तिम समय से प्रारम्भ होती है।
वे तीन विभाग इस प्रकार हैं-शुद्ध, अर्धविशुद्ध और अशुद्ध । उनमें से शुद्ध पुञ्ज का नाम सम्यक्त्वमोहनीय है और उसका रस एकस्थानक तथा मन्द द्विस्थानक एवं देशघाति है । अर्धविशुद्ध पुञ्ज का नाम मिश्रमोहनीय है और उसका रस मध्यम द्विस्थानक तथा सर्वघाती है । अशुद्ध पुञ्ज का नाम मिथ्यात्वमोहनीय है और उसका रस तीव्र द्विस्थानक, त्रिस्थानक, चतुःस्थानक तथा सर्वघाति है।
जिस समय उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है, उस समय से लेकर मिथ्यात्वमोहनीय के पुद्गल-दलिकों को मिश्र और सम्यक्त्वमोहनीय में पूर्व-पूर्व समय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के समय में असंख्यात-असंख्यात गुणाकार रूप से संक्रमित करता है। यद्यपि मिथ्यात्वमोहनीय के रस को घटाकर-कम कर यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा मिश्र और सम्यक्त्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org