Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३०
३६
इन आठ भंगों में से आदि के सात भंगों में वर्तमान आत्मा तो अविरत है । क्योंकि उसमें यथायोग्य रीति से सम्यग्ज्ञान, सम्यग् ग्रहण या सम्यक् पालन नहीं है । सम्यग्ज्ञान और सम्यग्ग्रहणपूर्वक पालन किये जाने वाले व्रत ही मोक्ष रूप फल को प्रदान करते हैं, परन्तु सम्यक्ज्ञान और सम्यगग्रहण के सिवाय घुणाक्षर न्याय से पाले जाने पर भी वे व्रत फलप्रद नहीं होते हैं । सात भंगों में से आदि के चार भंगों में तो सम्यग्ज्ञान का ही अभाव है और उसके बाद के तीन भंगों में सम्यग्ग्रहण अथवा सम्यक्पालन का अभाव है। इसीलिये आदि के सात भंगों में वर्तमान आत्मा अविरत कहलाती है। यदि और भी सूक्ष्मता से विचार किया जाये तो आदि के चार भंगों में वर्तमान आत्मा तो मिथ्या दृष्टि ही है । क्योंकि उसे यथार्थ ज्ञान ही नहीं है और बाद के तीन भंग अविरतसम्यग्दृष्टि के हैं। लेकिन अन्तिम भंग में वर्तमान आत्मा व्रतों के यथार्थज्ञानपूर्वक और विधिपूर्वक उनको ग्रहण करके अनुपालन करने वाली है, इसलिये उसे विरत कहते हैं। उसमें देश से पापव्यापार का त्याग करने वाली देशविरत और सर्वथा पापव्यापार से विरत सर्व विरत कहलाती है। ___ व्रतग्रहण के भेद से देशविरत-श्रावक के अनेक प्रकार हैं । जैसे कोई एक अणुव्रती-अणुव्रत ग्रहण करने वाला, कोई दो अणुव्रती, कोई तीन अणुव्रती यावत् उत्कृष्ट से कोई पूर्ण बारह व्रतधारी और केवल अनुमति सिवाय समस्त पापव्यापार का त्याग करने वाला भी होता है।
अनुमति तीन प्रकार की है-१ प्रतिसेवनानुमति, २ प्रतिश्रवणानुमति और ३ संवासानुमति । इनमें जो स्वयं कृत और अन्य स्वजनादि द्वारा किये गये पाप का अनुमोदन करता है और सावध आरम्भ से बने अशनादि का उपभोग करता है, उसे प्रतिसेवनानुमति दोष लगता है । जब पुत्रादि द्वारा किये हुए पाप कार्यों को सुनता है, सुनकर अनुमोदन करता है-ठीक मानता है और प्रतिषेध नहीं करता है तब प्रतिश्रवणानुमति और जब पापारम्भ में प्रवृत्त पुत्रादि पर मात्र ममत्व
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