Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६ हीयमान परिणामी होती है । यदि प्रवर्धमान परिणामी हो तो गुणश्रेणि चढ़ते क्रम से करता है और हीयमान परिणामी हो तो हीयमान क्रम से और अवस्थित परिणाम होने पर अवस्थित-स्थिर गुणश्रेणि करती है।
हीयमान परिणामी आत्मा ऊपर के स्थानों में से दलिक अल्प उतारती है और अल्प स्थापित करती है। अवस्थित परिणामी पूर्व के समय में जितने दलिक उतारे थे, उतने ही उतार कर स्थापित करती है। देशविरति या सर्वविरति जब स्वभावस्थ और हीनपरिणामी हो तब स्थितिघात और रसघात नहीं करता है । तथा
परिणामपच्चएणं गमागम कुणइ करणरहिओवि ।। आभोगणट्ठचरणो करणे काऊण पावेइ ॥३२॥ शब्दार्थ--परिणामपच्चएणं- (अनाभोग) परिणाम के निमित्त से, गमागमं---गमनागमन, कुणइ-करती है, करणरहिओवि-करण किये बिना भी, आभोगणट्ठचरणो--आभोग (उपयोग) पूर्वक जिसका चारित्र नष्ट हुआ है, करणे-करण को, काऊण-करके, पावेइ-प्राप्त करता है-चढ़ता है।
गाथार्थ-(अनाभोग) परिणाम के निमित्त से आत्मा करण किये बिना भी गमनागमन करती है। उपयोगपूर्वक जिसका चारित्र नष्ट हुआ है वह दो करण करके ही प्राप्त करती हैचढ़ती है।
विशेषार्थ- अनाभोग (उपयोग सिवाय) परिणाम के ह्रास रूप निमित्त से गिरते परिणाम होने से देशविरति आत्मा अविरति को प्राप्त करती है अथवा सर्वविरति देशविरति या अविरति को प्राप्त करे तो वह फिर से भी पूर्व में प्राप्त देशविरति और सर्वविरति को करण किये बिना ही प्राप्त करती है। इस प्रकार करण किये बिना भी अनेक बार गमनागमन करती है, परन्तु जिसने आभोग (उपयोग) पूर्वक अपने चारित्र को नष्ट किया है और वैसा करके देशविरति से अथवा सर्नविरति से गिरकर मिथ्यात्व पर्यन्त भी जो गई है, वह पुनः
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