Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ६
है, परन्तु ऊपर नहीं बढ़ाता है । यानि अपूर्वकरण के पहले समय में गुणश्रेणिका जो अन्तिम समय था, वही चरम समय के रूप में बना रहता है ।
यहाँ यह विशेष जानना चाहिये कि जिसका उदय होता है, उसकी गुणश्रेणि उदय समय से प्रारम्भ होती है और जिसका उदय नहीं होता है, उसकी गुणश्रेणि प्रदेशोदयावलिका छोड़कर ऊपर के समय से होती है ।
गुणसंक्रम- अपूर्वकरण के प्रथम समय में अनन्तानुबंधि के दलिक स्वजातीय बधती परप्रकृति में अल्प संक्रमित करता है, दूसरे समय में असंख्यातगुण अधिक संक्रमित करता है, तीसरे समय में उससे भी असंख्यातगुण अधिक संक्रमित करता है। इस तरह पूर्व - पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर समय में असंख्यातगुण अधिक यावत् अपूर्वकरण के चरम समय पर्यन्त सक्रमित करता है । अनन्तानुबंधि की उपशमना करते गुणसंक्रमण मात्र अनन्तानुबंधि का ही होता है । अबध्यमान प्रत्येक अशुभ प्रकृति का गुणसक्रमण तो आठवें गुणस्थान से प्रारम्भ होता है ।
अन्य स्थितिबंध - अपूर्वकरण के प्रथम समय में अपूर्व - अल्प स्थितिबंध करता है । तत्पश्चात् होने वाला दूसरा स्थितिबंध पल्योपम के संख्यातवें भाग हीन करता है । इस तरह आगे-आगे के स्थितिबंध पत्योपम के संख्यातवें भाग न्यून न्यून होते जाते हैं । स्थितिघात और स्थितिबंध का काल तुल्य है । अर्थात् स्थितिघात और स्थितिबध साथ ही प्रारम्भ होते हैं और साथ ही पूर्ण होते हैं ।
इस प्रकार से इन पाँच पदार्थों को अपूर्वकरण में युगपद् आरम्भ करता है । एक साथ चढ़े हुए जीवों में भी अध्यवसाय का तारतम्य होता है, जिससे उसका निवृत्ति ये दूसरा नाम भी है ।
अपूर्वकरण पूर्ण करके अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है । अपूर्वकरण वहाँ तक कहलाता है कि जहाँ तक चढ़े हुए जीवों में अध्यवसाय का तारतम्य होता है । इसके बाद जिस समय से साथ च हुए
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