Book Title: Panchsangraha Part 09
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
पंचसंग्रह : ६ इस प्रकार से रसघात का स्वरूप जानना चाहिए। अव गुणश्रेणि का स्वरूप बतलाते हैं।
गुणश्रेणि
घाइय ठिईओ दलियं घेत्तु घेत्तु असंखगुणणाए । साहियदुकरणकालं उदयाइ रएइ गुणसेढिं ॥१४॥
शब्दार्थ-घाइय–घात किये गये, ठिईओ दलियं-स्थिति के दलिकों को, घेत्तु-घेत्तु--ग्रहण कर करके, असंखगुणणाए---असंख्यातगुण-असंख्यातगुण रूप से, साहियदुकरणकालं-दोनों करणों की अपेक्षा से अधिक काल में, उदयाइ-उदय से प्रारम्भ कर, रएइ-रचना होती है, गुणसेढि-गुणश्रेणि की।
गाथार्थ-घात किये गये स्थिति के दलिकों में से दलिकों को ग्रहण कर-करके उदय से प्रारम्भ कर पूर्व-पूर्व समय से उत्तरउत्तर के समय में असंख्यातगुण-असंख्यातगुण रूप से दोनों करणों (अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण) की अपेक्षा अधिक काल में जो दलरचना होती है, वह गुणश्रेणि है ।
विशेषार्थ-जिस स्थिति का घात किया गया है, उसमें से दलिकों को ग्रहण करके उन दलिकों को उदयसमय से प्रारम्भ कर प्रत्येक समय में ऊपर-ऊपर के प्रत्येक स्थान में असंख्य-असंख्य गुण बढ़ते अर्थात् पूर्व-पूर्व के समय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के समय में असंख्यात-असंख्यात गुणाकार रूप से स्थापित करना । जैसे कि उदय समय में स्तोक स्थापित करना, दूसरे समय में असंख्यगुण रूप से स्थापित करना, तीसरे समय में उससे भी असंख्यातगुण अधिक स्थापित करना, इस प्रकार असंख्यात-असंख्यात गुणाकार रूप से जो दलरचना होती है, उसे गुणश्रोणि कहते हैं और इस प्रकार की दलरचना अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण के काल से कुछ अधिक समयों में होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org