Book Title: Padmavati Purval Jain Directory
Author(s): Jugmandirdas Jain
Publisher: Ashokkumar Jain

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Page 18
________________ इससे जो हानि हुई वह यह है कि समाज कभी संगठित नहीं हो सकी। यदि विवचा का क्षेत्र इसके हाथ में न होता तो अन्य जैन जातियों द्वारा इसका पहचाना जाना भी मुश्किल था । असंगठित रहने का परिणाम यह हुआ कि उत्तर प्रदेश के पद्मावती पुरवाल मध्य प्रान्तीय ( भोपाल उज्जैन लाईन ) पुरवालों से कभी पुकाकार नहीं हो सके। कुछ जातीय नेताओं को छोड़कर दोनों ही एक दूसरे से अंकित रहे अतः दोनों में एक दूसरे के साथ रोटी बेटी का व्यवहार नहीं हो सका । असंगठित रहने का दूसरा परिणाम यह हुआ कि गाँवों में बसी हुई यह जाति अपने व्यापार व्यवसाय के लिये स्थानीय क्षेत्रों से बाहर नहीं जा सकी। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने वर्ग के साथ रहे अथवा जहाँ रहे वहाँ अपना वर्ग बनाकर रहे । प्रायः यह देखा गया है कि किसी जाति या समाज के बन्धु गहर लाकर समृद्धि प्राप्त करते हैं तो अपने अन्य जातीय बन्धुओं को भी वहाँ बुला लेते हैं और सब प्रकार की सामाजिक एवं वैयक्तिक सुविधाएँ पहुँचाकर उसे अपनी समाज का प्रतिष्ठित अंग बना लेते हैं । नारवाड़ी, गुजराती, पारसी आदि जातियाँ इसी तरह सनद हुई हैं । पद्मावती पुरवालों के लिये संगठन के अभाव से बाहर इस प्रकार का कोई आकर्षण नही था अतः वे गाँवों के बाहर सुदूर भारतीय प्रदेशों में जा ही नहीं सके । चाहर न जाने के लिये इस जाति के सामने कुछ धार्मिक आचार विचारों के निर्वाह का मी प्रश्न था । संगठन में प्रेम होता है और प्रेम एक दूसरे को आकर्षित करता है अन्यथा जो जहाँ है वह वहाँ उसी रूप में रहने के लिये वाध्य है । पद्मावती पुरवाल जाति भी इसकी अपवाद नहीं रही। पारस्परिक आकर्षण उद्भूत न होने के कारण यह अपने स्थानों से मागे नहीं बढ़ सकी । परिणामतः आर्थिक क्षेत्र में समुद्र जातियों के साथ यह अपना हाथ नहीं बँटा सकी। फिर भी धार्मिक नैतिक भागों में यह किसी से पीछे नहीं है, स्वाभिमान इसे आनुवांशिक रूप में विरासत में मिला है, यहाँ तक कि कभी कभी इसका अतिरंक मी होते देखा गया है। शुद्ध खान पान की मर्यादा इन घरों में अब भी सुरक्षित है। विशेष रूप से गाँवों में कोई भी त्यागी व्रती कभी भी बिना सूचना दिये जाये तो उसे तत्काल अनुकूल आहार मिलने में कोई बाधा उपस्थित नहींहोगी । सजातित्व के संरक्षण में यह सबसे आगे है। थोड़े घर होते हुए भी जातीय मर्यादा को बनाये रखने में इसने सदा गौरव का अनुभव क्रिया है । इस जाति का अतीन निःसन्देह गौरवमय रहा है। लेकिन इसके प्रामाणिक अतीव इतिहास की आवश्यक्ता अभी बनी ही हुई है। जहाँ तक प्रस्तुत डायरेक्टरों के निर्माण की बात है. यह एक सुन्दर और अभूतपूर्व प्रयत्न है । मुझे स्मरण नहीं आता कि किन्हीं अन्य जैन जातियों ने भी अपनी अपनी इस प्रकार की डायरेक्टरियाँ बनाई हो। आज से संभवतः पचान साठ वर्ष पहले एक जैन डायरेक्टरी अवश्य प्रकाशित हुई थी जो उसल जमाने की अपेक्षा नया प्रयत्न था पर उसने जातिवार गणना के लिये कोई स्थान न था । तब से मन तक परिस्थितियों में बहुत परिवर्तन हुये हैं अत उनके आधार पर इस समय नये प्रयत्न नहीं किये जा सकते थे । इस डायरेक्टरी के निर्माण में जो श्रम और शक्ति का उपयोग हुन्न है वह बिल्कुल नया है । जाति से संबंधित कोई परिचयात्मक विवरण इसमें छोड़ा नहीं गया है। व्यक्तिगत परिचयों में अधिक-से-अधिक जानकारी देने का प्रयत्न किया गया है। उन सभी प्रवासी बन्धुओं का इसमें चिवरण है जो भारत के विभिन्न प्रान्तों में जाकर बस गये है। मूलतः वे कहाँ के निवासी हैं यह भी जहाँ तक उपलब्ध हो सका है दिया गया है। विशिष्ट व्यनियो के संक्षिप्त परिचय भी दिये गये हैं ।

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