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न्याव-दीपिका
चतुषं संस्करम-चीर निर्वाण सं० २४६४, ई० सन् १९३८ में बीकंकुबाई पाठ्य-पुस्तकमाला कारंबाकी पोरसे मुद्रित हमा। इसमें प्रभुद्धियो कुछ ज्यादा पाई जाती है।।
यही चार संस्करण अब तक मुद्रित हुए हैं। इनकी मुद्रितार्थ भुसंशा रक्खी है । शेष ममुदित-हलिखित प्रतियोंका परिषय इस प्रकार है
ब-यह देहलीके नये मन्दिरको प्रति है। इसमें २३ पत्र है और प्रत्येक पत्रमें प्रायः २६-२६ पंक्ति हैं। उपयुक्त प्रतियोंमें सबसे अधिक प्राचीन और शुद्ध प्रति यही है। यह वि० सं० १७४६ के पारिवनमासके कृष्णपक्षकी नवमी तिषिमें पं० जीतसागरके द्वारा लिखी गई है। इस प्रतिमें वह मन्तिम पलोकभी है । जो प्रारा प्रतिके अलावा दूसरी प्रतियोंमें नहीं पाया जाता है। ग्रन्थकी लोकसंख्या सूचक 'अंघसं० १०००हजार!' यह शब्दभी लिखे हैं ! इस प्रतिको हमने देहली प्रसूपक व संज्ञा रक्खी है । यह प्रति हमें बायू गन्नात लपी मामाको पास।
मा—यह माराके जैनसिद्धांत भवनकी प्रति है जो वहाँ नं० २२/२ पर दर्ज है। इसमें २७१ पत्र हैं। प्रतिमें सेखनादिका काम नहीं है । 'मद्गुरों इत्यादि अन्तिम श्लोकभी इस प्रतिमें मौजूद हैं। पृ० २ पौर पृ० २ पर कुछ टिप्पणके वाक्य मी दिये हुए हैं। यह प्रति मित्रवर पं. नेमीचन्द्रजी शास्त्री ज्योतिषाचार्य द्वारा प्राप्त हुई। इसकी प्रारा पर्षमूचक मा संज्ञा रक्खी है।
म. यह मथुराके ऋषभब्रह्मचर्याश्रम चौरासीको प्रति है। इसमें १३।। पत्र हैं। वि० सं० १९५२ में जयपुर निवासी मुन्नालाल अग्रवाल के द्वारा लिखी गई है । इसमें प्रारम्भके दो तीन पत्रोंपर कुछ टिप्पण भी है। मागे नहीं हैं । यह प्रति मेरे मित्र पं० राबवरलालजी व्याकरणाचार्य द्वारा प्राप्त हुई । इस प्रतिका नाम मथुराबोधक म रक्खा है।
१ 'संवत् १७४६ वर्षे पाश्विनमासे कृष्णपक्षे नवम्यां तिको बुधवासरे निखितं श्रीकुसुमपुरे पं० श्री जीतसागरेण ।'-पत्र २३ ।