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सम्पादकीय
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पृ० ७. पं० १ 'अनभिप्रेतस्य गामा विप्रसङ्गन'सी प्रतियों पृ० १०८ पं० ७ 'अदृष्टान्तवचनं तु'
प्रमुनित प्रतियों के छूटे हुए पाठ मारा प्र० प० १४ 'अनिश्चितप्रामाण्याप्रामाण्यप्रत्ययगोचरत्वं विकस्पप्रसिद्धस्वं । तद्वयविषमत्वं प्रमाणविकल्पप्रसिद्धत्वम् ।'
प. प्रति ५० ६ 'सहकृताजातं रूपिद्रव्यमाविषयमवधिज्ञानं । मनःपर्ययशानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमः ।।
स्थूल एवं सूक्ष्म मशुद्धियां तो बहुत हैं जो दूसरे संस्करणोंको प्रस्तुत संस्करणके साथ मिलाकर पढ़नेसे ज्ञात हो सकती हैं। हमने इन प्रशद्धियोंको दूर करने तथा छूटे हुए पाठों को दूसरी ज्यादा शुद्ध प्रतियों के माघार से संयोजित करनेका यथासाध्य पूरा पत्ल किया है। फिर भी सम्भव है कि दृष्टि दोष या प्रमादजन्य कुछ अशुद्धिा अभी भी रही हो। संगोषनमें उपयुक्त प्रतियों का परिचय
प्रस्तुत संस्करणमें हमने जिन मुद्रित और प्रमुद्रित प्रतियोंका उपयोग किया है उनका यहाँ क्रमशः परिचय दिया जाता है :
अपम संस्करण-माजसे कोई ४६ वर्ष पूर्व सन् १८१६ में कलापा भरमापा निटवेने मुद्रित कराया था । यह संस्करण अब प्रायः प्रसम्य है। इसकी एक प्रति मुख्तारसाहबके पुस्तकभण्डारमें सुरक्षित है । दूसरे मुद्रितोंकी अपेक्षा यह शुद्ध है।
द्वितीम संस्करणवीर निर्वाण सं. २४३६ में पं. खूबचन्दजी भास्त्री धारा सम्पादित और उनकी हिन्दीटोका सहित नग्रन्थरत्नाकरकार्यालय द्वारा बम्बई में प्रकट हुआ है । इसके मूल पोर टीका दोनोंमें स्खलन है।
तृतीय संस्करण-वीर निर्वाण सं० २४४१, ई० सन् १९५५ में भारतीप जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था काशीकी सनातनी जैनगन्यमाला. को मोरसे प्रकाशित हुमा है । इसमें भी प्रशुद्धियां पाई जाती हैं।