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प्राक्कथन
रूपोंके समान समझ लेना चाहिए । बैनदर्शनमें नयवचनके इन सात रूपोंको नयसप्तमंगी नाम दिया गया है।
इन दोनों प्रकारकी सप्तमंगियोंमें इतना ध्यान रखनेकी जरूरत है कि सत्व-धर्मसुखेन वस्तुका अथवा वस्तुके सत्वधर्मका प्रतिपादन किया जाता है तो उस समय वस्तुको प्रसस्वधर्मविशिष्टताको अधना वस्तुके असत्वषमको अविविक्षित मान लिया जाता है और यही बात असत्वधर्ममुखेन वस्तुका अथवा वस्तु के असत्वधर्मका प्रतिपादन करते समय वस्तुकी सस्वयमावशिष्टता अथवा वस्तुके सत्यधर्म के बारे में समझना चाहिए । इस प्रकार उभयपोको विवक्षा (मुस्यता) और मविवक्षा (गोणता)के स्पष्टीकरणके लिए स्याहाद अर्थात् स्यात्की मान्यताको भी अनदर्शनमें स्थान दिया गया है। स्याद्वादका अर्थ है-किसी भी धर्मके द्वारा वस्तुका अथवा वस्तुके किसीभी धर्मका प्रतिपादन करते वक्त उसके अनुकूल किसीभी निमित्त, किसीमो दृष्टिकोण या किसी भी उद्देश्य को लक्ष्य में रखना । और इस तरह से वस्तुको विरुद्धधर्मविशिष्टता अपवा वस्तुमें विरुद्ध धर्मका अस्तित्व प्राण्य रक्खा जा सकता है। यदि उक्त प्रकारके स्यावादको नहीं अपनाया जायगा तो वस्तुको विरुद्धधर्मविशिफ्टताका अथवा वस्तुमें विरोधी धर्मका प्रभाव मानना अनिवार्य हो जायगा पौर इस तरहसे अनेकान्तवादका भी जीवन समाप्त हो जायगा।।
इस प्रकार अनेकान्तवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, सप्तभंगीवाद और स्याद्वाद ये जैनदर्शनके अनुठे सिद्धान्त हैं। इनमेंसे एक प्रमाणवादको छोड़कर बाकीके धार सिद्धान्तोंको तो जनदर्शनकी अपनी ही निधि कहा जा सकता है और ये चारों सिद्धान्त जनदर्शनकी अपूर्वता एवं महत्ताके मतीव परिचायक हैं। प्रमाणवादको यद्यपि दूसरे दर्शनोंमें स्थान प्राप्त है परन्तु जिस व्यवस्थित ढंग और पूर्णताके साथ जैनदर्शनमें प्रमाणका विवेचन पाया जाता है वह दूसरे दर्शनोंमें नहीं मिल सकता है । मेरे इस कथनकी स्वाभाविकताको जनदर्शनके प्रमाणविदेषनके साथ दूसरे दर्शनों