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गाथा ८९ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
इष्टवियोगज और अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान की चर्चा तो की, पर वेदनाजन्य और निदान नामक आर्तध्यान की चर्चा नहीं की। इसीप्रकार रौद्रध्यान के भेदों की भी चर्चा न करके मात्र इतना ही कह दिया कि द्वेषभाव से उत्पन्न होनेवाला रौद्रध्यान ।
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अरे भाई ! यह कोई बात नहीं है; क्योंकि यहाँ ध्यानों के भेदप्रभेदों की चर्चा करना इष्ट नहीं है। यदि होता तो फिर धर्मध्यान और शुक्लध्यानों के भेदों की भी चर्चा होती। यहाँ तो मात्र यह बताना अभीष्ट है कि धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही प्रतिक्रमणस्वरूप हैं, उपादेय हैं।
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इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में मात्र इतना ही कहा गया है कि आरंभ के आर्त और रौद्र – ये दो ध्यान नरकादि अशुभ गतियों के कारण हैं, दुःखरूप हैं; अतः हेय हैं, छोड़ने योग्य हैं और धर्मध्यान उपादेय है तथा शुक्लध्यान परम उपादेय है । ये उपादेय ध्यान ही प्रतिक्रमणरूप हैं; इस कारण इनके धारकों को गाथा में अभेदनय से प्रतिक्रमणस्वरूप ही कहा है ।। ८९ ।।
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इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथा चोक्तम् - तथा कहा भी है – लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार है(अनुष्टुभ् )
निष्क्रियं करणातीतं ध्यानध्येयविवर्जितम् ।
अन्तर्मुखं तु यद्ध्यानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः ।। ४२ ।। (रोला )
अरे इन्द्रियों से अतीत अन्तर्मुख निष्क्रिय ।
ध्यान - ध्येय के जल्पजाल से पार ध्यान जो ।
अरे विकल्पातीत आतमा की अनुभूति ।
ही है शुक्लध्यान योगिजन ऐसा कहते ॥ ४२ ॥ जो ध्यान निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है, ध्यान और ध्येय के विकल्पों से रहित है और अन्तर्मुख है; उस ध्यान को योगीजन शुक्लध्यान कहते हैं । उक्त कलश में शुक्लध्यान को योगियों की साक्षीपूर्वक राग और