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नियमसार गाथा ९४
परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार की इस अन्तिम गाथा में व्यवहारप्रतिक्रमण की चर्चा करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है -
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पडिकमणणामधेये सुत्ते जह वण्णिदं पडिक्कमणं । तह णच्चा जो भावइ तस्स तदा होदि पडिक्कमणं ।। ९४ ।। ( हरिगीत )
प्रतिक्रमण नामक सूत्र में वर्णन किया जिसरूप में । प्रतिक्रमण होता उसे जो भावे उसे उस रूप में ||१४|| प्रतिक्रमण नामक सूत्र में प्रतिक्रमण का स्वरूप जिसप्रकार बताया गया है, उसे जब मुनिराज तदनुसार भाते हैं; तब उन्हें प्रतिक्रमण होता है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं. “यहाँ व्यवहारप्रतिक्रमण की सफलता की बात की है ।
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समस्त आगम के सार और असार का विचार करने में अति चतुर तथा अनेक गुणों के धारक निर्यापकाचार्यों ने जिसप्रकार द्रव्यश्रुतरूप प्रतिक्रमण नामक सूत्र में प्रतिक्रमण का अति विस्तृत वर्णन किया है; तदनुसार जानकर जिननीति का उल्लंघन न करते हुए ये चारु चारित्र की मूर्तिरूप जो महामुनिराज सकल संयम की भावना करते हैं, बाह्य प्रपंचों से विमुख, पंचेन्द्रिय विस्तार से रहित, देहमात्र परिग्रहधारी और परमगुरु के चरणों में स्मरण में आसक्त चित्तवाले उन मुनिराजों को प्रतिक्रमण होता है ।"
स्वामीजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
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" इसमें दोनों बातें आ गई कि सकलसंयम की भावना से स्वरूप में ठहरते हैं और जब विकल्प उठता है, तब परमगुरु के प्रति भक्ति का शुभभाव भी आता है - ऐसी दशावाले चारित्रमूर्ति मुनिराजों को ही प्रतिक्रमण होता है।"
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७५७-७५८