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नियमसार अनुशीलन ( वसंततिलका ) यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुक्षो
स्त्यिप्रतिक्रमणमप्यणुमात्रमुच्चैः। तस्मै नमः सकलसंयमभूषणाय श्रीवीरनन्दिमुनिनामधराय नित्यम् ।।१२६ ।।
(वसंततिलका ) अरे जिन्हें प्रतिक्रमण ही नित्य वर्ते।
अणुमात्र अप्रतिक्रमण जिनके नहीं है। जो सकल संयम भूषण नित्य धारें।
उन वीरनन्दि मुनि को नित ही नमें हम ॥१२६|| मोक्ष की इच्छा रखनेवाले वीरनन्दी मुनिराज को सदा प्रतिक्रमण ही है, अणुमात्र भी अप्रतिक्रमण नहीं है; उन सकल संयमरूपी आभूषण को धारण करनेवाले वीरनन्दि मुनिराज को सदा नमस्कार हो। स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"मुनियों को यहाँ 'मुमुक्षु' कहा है। उन्हें चैतन्य में लीनता से सदा शुद्धि की वृद्धि ही हुआ करती है और राग का अभाव होता जाता है। इसलिये उनकेसदा प्रतिक्रमण है और अणुमात्र भी अप्रतिक्रमण नहीं है।" ___ इस छन्द में उन वीरनन्दि मुनिराज को नमस्कार किया गया है; जो सकल संयमरूपी आभूषणों के धारण करनेवाले हैं और जिन्हें सदा प्रतिक्रमण है तथा अणुमात्र भी अप्रतिक्रमण नहीं है।
ध्यान रहे, इन वीरनन्दिमुनिराज को तात्पर्यवृत्ति टीका के आरंभिक मंगलाचरण के तीसरे छन्द में भी याद किया गया है और वहाँ इन्हें सिद्धांत, तर्क और व्याकरण - इन तीनों विधाओं से समृद्ध बताया गया है। ये पद्मप्रभमलधारिदेव के साक्षात् गुरु हैं।।१२५-१२६ ।।
अधिकार के अन्त में टीकाकार मुनिराज स्वयं लिखते हैं कि इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार नामक पाँचवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७६०