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नियमसार गाथा ९६
अब इस गाथा में यह बताते हैं कि ज्ञानी यह विचारते हैं कि मैं अनन्तचतुष्टयस्वरूप हूँ । गाथा मूलतः इसप्रकार है - केवलणाणसहावो केवलदंसणसहावसुहमइओ । केवलसत्तिसहावो सो हं इदि चिंतए णाणी ।। ९६ ।। ( हरिगीत )
ज्ञानी विचारें इसतरह यह चिन्तवन उनका सदा । केवल्यदर्शन - ज्ञान - सुख- शक्तिस्वभावी हूँ सदा ॥ ९६ ॥ ज्ञानी इसप्रकार चिन्तवन करते हैं कि मैं केवलज्ञानस्वभावी हूँ; केवलदर्शनस्वभावी हूँ, मैं सुखमय (केवलसुखस्वभावी) हूँ और केवल - शक्तिस्वभावी हूँ।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
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“यह अनन्तचतुष्टयात्मक निज आत्मा के ध्यान के उपदेश का कथन है। यहाँ समस्त बाह्य प्रपंच की वासना से विमुक्त, सम्पूर्णत: अन्तर्मुख, परमतत्त्वज्ञानी जीव को शिक्षा दी गई है।
किसप्रकार की शिक्षा दी गई ? – ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं कि सादि - अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारनय से शुद्ध स्पर्श-रस-गंध-वर्ण के आधारभूत शुद्ध पुद्गल परमाणु भाँति; मैं केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख तथा केवलशक्तियुक्त परमात्मा हूँ - ज्ञानी को ऐसी भावना करना चाहिए और निश्चयनय से मैं सहजदर्शनस्वरूप हूँ, मैं सहजचारित्रस्वरूप हूँ तथा मैं सहज चित्शक्तिस्वरूप हूँ – ऐसी भावना करना चाहिए ।'
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आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"केवलज्ञान-दर्शन-सुख और शक्तिसम्पन्न परमात्मा ही मैं हूँ ।