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गाथा ९९ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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पर से अत्यन्त उपेक्षित होने को कहा और साथ ही आत्मा का अवलम्बन लेने को कहा - इसप्रकार अस्ति - नास्ति से बात की है ।
चैतन्य का अवलम्बन लेकर स्थिर होने पर विभावपरिणति उत्पन्न ही नहीं होती, तब ‘मैं उसको छोड़ता हूँ' - ऐसा कहा जाता है । आ का अवलम्बन लेने पर वीतरागी परिणति होती है और रागादि की उत्पत्ति ही नहीं होती - इसी का नाम प्रत्याख्यान है । २"
उक्त गाथा और उसकी टीका में सम्पूर्ण विभावभावों से संन्यास ने की विधि बताई गई है । सारा जगत कंचन - कामिनी आदि परद्रव्यों में ही उलझा हुआ है। यहाँ ज्ञानी संकल्प करता है कि मैं इन कंचन - कामिनी आदि सभी परद्रव्यों से, उनके गुणों और पर्यायों से ममता तोड़ता हूँ और निर्ममत्व होकर अपने आत्मा में ही अपनापन स्थापित करके उसी में समा जाने को तैयार हूँ ।। ९९ ।।
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इसके बाद तथा चोक्तं श्रीमद्मृतचन्द्रसूरिभि: - तथा अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है – कहकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है( शिखरिणी ) निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल
प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः संत्यशरणाः । तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं
स्वयं विंदंत्येते परमममृतं तत्र निरताः ।। ५० ।। ( रोला )
सभी शुभाशुभभावों के निषेध होने से। अशरण होंगे नहीं रमेंगे निज स्वभाव में ।। अरे मुनीश्वर तो निशदिन निज में ही रहते ।
निजानन्द के परमामृत में ही नित रमते ॥५०॥ सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) - सभी प्रकार के कर्मों का निषेध किये जाने पर निष्कर्म अवस्था में प्रवर्तमान निवृत्तिमय जीवन जीनेवाले
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७९२ २. वही, पृष्ठ ७९२
३. समयसार, कलश १०४