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नियमसार गाथा १०२ अब इस गाथा में यह कहते हैं कि मेरा तो एकमात्र भगवान आत्मा ही है, अन्य कुछ भी मेरा नहीं है । गाथा मूलतः इसप्रकार है -
एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे वाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।।१०२।।
(हरिगीत) ज्ञान-दर्शनमयी मेरा एक शाश्वत आतमा।
शेष सब संयोगलक्षण भाव आतम बाह्य हैं।।१०२।। मेरा तो ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला एक शाश्वत आत्मा ही है, शेष सब संयोग लक्षणवाले भाव मुझसे बाह्य हैं, पृथक् हैं।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यह एकत्वभावना से परिणत सम्यग्ज्ञानी के लक्षण का निरूपण है। ___ समस्त संसाररूपी नंदनवन के वृक्षों की जड़ के आसपास क्यारियों में पानी भरने के लिए जलप्रवाह से परिपूर्ण नाली के समान वर्तता हुआ जो शरीर, उसकी उत्पत्ति में हेतभूत द्रव्यकर्म व भावकर्म से रहित होने से जो आत्मा एक है, वह त्रिकाल निरुपाधिक स्वभाववाला होने से निरावरण ज्ञान-दर्शनलक्षण से लक्षित कारणपरमात्मा है। ___ वह कारणपरमात्मा समस्त क्रियाकाण्ड के आडम्बर के विविध विकल्परूप कोलाहल से रहित, सहज शुद्ध ज्ञानचेतना को अतीन्द्रियरूप से भोगता हुआ शाश्वत रहकर मेरे लिए उपादेयरूप रहता है।
और जो शुभाशुभ कर्म के संयोग से उत्पन्न होनेवाले शेष सभी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह हैं, वे सब अपने आत्मा से बाह्य हैं - ऐसा मेरा निश्चय है।" __ इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -