________________
१०६
नियमसार अनुशीलन
कोई आडम्बर नहीं है । मेरा आत्मा तो उस सब कोलाहल से रहित सहज शुद्ध ज्ञान-चेतना को अतीन्द्रियपने भोगता हुआ शाश्वतरूप से मेरे लिए उपादेयपने रहता है।
राग-द्वेष भाव अभ्यन्तर परिग्रह हैं और बाह्य में लक्ष्मी-निर्धनता रोग - निरोग - ये सब बाह्य परिग्रह हैं । वे सभी अन्तरंग - बहिरंग परिग्रह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो शाश्वत ज्ञान - दर्शनलक्षण से लक्षित त्रिकाली कारणपरमात्मा हूँ । - ऐसा मेरा निश्चय है ।
ऐसा निश्चय किये बिना प्रत्याख्यान नहीं होता है। "
इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि मैं ज्ञानदर्शनस्वभावी एक आत्मा हूँ, शेष जो शरीरादि संयोग हैं; वे सभी मुझसे भिन्न हैं । मेरा उनसे कोई संबंध नहीं है ।
I
टीका में अलंकारिक भाषा में बताया गया है कि यह शरीर संसार रूपी बाग को हरा-भरा रखनेवाला है। एक ज्ञानदर्शनलक्षण से पहिचानने में आनेवाला आत्मा - कारणपरमात्मा ही मैं हूँ । अतः इन शरीरादिक संयोगों और रागादिभावरूप संयोगी भावों से भिन्न कारणपरमात्मारूप अपने आत्मा की आराधना में ही रत रहता हूँ ॥१०२॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जो इसप्रकार है( मालिनी )
अथ मम परमात्मा शाश्वतः कश्चिदेकः । सहजपरमचिच्चिन्तामणिर्नित्यशुद्धः ।।
निरवधिनिजदिव्यज्ञानदृग्भ्यां समृद्धः ।
किमिह बहुविकल्पैर्मे फलं बाह्यभावैः ।। १३८ ।। ( वीर )
सदा शुद्ध शाश्वत परमातम मेरा तत्त्व अनेरा है। सहज परम चिद् चिन्तामणि चैतन्य गुणों का बसेरा है । अरे कथंचित् एक दिव्य निज दर्शन-ज्ञान भरेला है । अन्य भाव जो बहु प्रकार के उनमें कोई न मेरा है ॥ १३८ ॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८२४ २. वही, पृष्ठ ८२५