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नियमसार गाथा १०३
अब इस गाथा में अपने दोषों के निराकरण की बात करते हैं । गाथा मूलतः इसप्रकार है
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जं किंचि मे दुच्चरितं सव्वं तिविहेण बोसरे । सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं । । १०३ ।। ( हरिगीत )
मैं त्रिविध मन-वच-काय से सब दुश्चरित को छोड़ता । अर त्रिविध चारित्र से अब मैं स्वयं को जोड़ता || १०३ || मेरा जो कुछ भी दुश्चरित्र है; उस सभी को मैं मन-वचन-काय से छोड़ता हूँ और त्रिविध सामायिक अर्थात् चारित्र को निराकार करता हूँ, निर्विकल्प करता हूँ ।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
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"यह अनागत दोषों से मुक्त होने के उपाय का कथन है । भेदविज्ञानी होने पर भी मुझ तपोधन को पूर्व संचित कर्मों के उदय के बल से चारित्रमोह का उदय होने पर यदि कुछ दुश्चरित्र हुआ हो तो : उस सभी को मैं मन-वचन-काय की संशुद्धि से छोड़ता हूँ ।
यहाँ सामायिक शब्द चारित्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और वह चारित्र तीन प्रकार का होता है - सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापना चारित्र और परिहारविशुद्धि चारित्र ।
मैं उस चारित्र को निराकार करता हूँ अथवा मैं जघन्यरत्नत्रय को उत्कृष्ट करता हूँ। नव पदार्थरूप परद्रव्य के श्रद्धान-ज्ञान-आचणरूप रतनत्रय साकार अर्थात् सविकल्प है; उसे निजस्वरूप के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप स्वभावरत्नत्रय के स्वीकार द्वारा निराकार अर्थात् शुद्ध करता हूँ । - ऐसा अर्थ है ।
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