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नियमसार गाथा १०४ अब इस गाथा में अंतुर्मख सन्तों की भावशुद्धि का कथन करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार हैसम्मं मे सव्वभूदेसु वे मज्झं ण केणवि। आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडिवज्जए।।१०४॥
(हरिगीत) सभी से समभाव मेरा ना किसी से वैर है।
छोड़ आशाभाव सब मैं समाधि धारण करूँ ॥१०४।। सभी जीवों के प्रति मुझे समताभाव है, मेरा किसी के साथ बैर नहीं है। वस्तुत: मैं आशा को छोड़कर समाधि को प्राप्त करता हूँ।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"इस गाथा में अंतर्मुख परम तपोधन की भावशुद्धि का कथन है।
समस्त इन्द्रियों के व्यापार से मुक्त मुझे भेदज्ञानियों तथा अज्ञानियों के प्रति समताभाव है, भिन्न-अभिन्नरूप परिणति के अभाव के कारण मुझे किसी भी प्राणी से बैर-विरोध नहीं है, सहज वैराग्यपरिणति के कारण मुझे कोई भी आशा नहीं है, परम समरसीभाव से संयुक्त परम समाधि का मैं आश्रय करता हूँ।"
स्वामीजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"अहो! मैं ज्ञानस्वभावी चैतन्यवस्तु हूँ। मैं किसी का मित्र या शत्रु नहीं और न कोई दूसरा मेरा मित्र या शत्रु है, इसलिये मुझे किसी के प्रति आशा नहीं है और न किसी के प्रति वैर है । मैं तो सर्वप्रकार की आशा छोड़कर चैतन्य में लीन होता हूँ-राग-द्वेषरहित परमसमाधि प्रगट करता हूँ। हे जगत के जीवो! हमने जैसा किया है वैसा तुम भी करो।'
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८३७