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नियमसार गाथा ९९ अब इस गाथा में सभी विभावभावों से संन्यास की विधि समझाते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है - ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो। आलंबणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे ।।९९ ।।
(हरिगीत ) छोड़कर ममभाव निर्ममभाव में मैं थिर रहूँ।
बस स्वयं का अवलम्ब ले अवशेष सब मैं परिहरूँ||९९|| मैं ममत्व को छोड़ता हूँ और निर्ममत्व में स्थित रहता हूँ। मेरा अवलम्बन तो एकमात्र आत्मा है, इसलिए शेष सभी को विसर्जित करता हूँ, छोड़ता हूँ।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यहाँ सकल विभाव के संन्यास की विधि कही है।
मैं सुन्दर कामिनी और कंचन (सोना) आदि सभी परद्रव्य, उनके गुण और पर्यायों के प्रति ममत्व को छोड़ता हूँ। परमोपेक्षा लक्षण से लक्षित निर्ममत्व आत्मा में स्थित होकर तथा आत्मा का अवलम्बन लेकर संसाररूपी स्त्री के संयोग से उत्पन्न सुख-दुःखादि अनेक विभाव रूप परिणति को छोड़ता हूँ।"
स्वामीजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"जगत में स्त्री और कंचन को मुख्य परिग्रह माना जाता है, अतः यहाँ उसी की मुख्यता से बात की है। वास्तव में तो सम्मेदशिखर आदि तीर्थ अथवा देव-शास्त्र-गुरु भी परद्रव्य हैं, अतः मैं उनकी भी ममता छोड़ता हूँ; क्योंकि परद्रव्य के प्रति ममता रहने पर राग का प्रत्याख्यान नहीं होता। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७९२