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नियमसार अनुशीलन ___“यहाँ पहले ही मरण की बात करके उसके दो प्रकार कहे :- एक नित्यमरण जो क्षण-क्षण सर्व जीवों के हो रहा है और दूसरा भवसम्बन्धी मरण अर्थात् देह का संयोग छूट जाना - दोनों में जीव अकेला ही है। ___ मरण के बिस्तर पर पड़ा हो, चारों तरफ कुटुम्बीजन खड़े हों; तथापि जीव को मरण से कोई बचा नहीं सकता। शरीर की पर्याय जिस समय छूटनेवाली है, उस समय में आगा-पीछा नहीं हो सकता । चक्रवर्ती के शरीररक्षक सोलह हजार देव सेवा में खड़े हों तो भी आयुष्य पूर्ण होने पर जीव अकेला ही मरता है। ___जीव स्वयं ही महाबल-पराक्रमवाला है, यदि पुरुषार्थ करे तो क्षण में केवलज्ञान लेवे – ऐसा पराक्रमी होने पर भी तथा चारों तरफ से बन्धुजनों द्वारा रक्षित होने पर भी और जीव की इच्छा न होने पर भी जीव का अकेले ही स्वयमेव मरण होता है। इन्द्र आ जावे तो भी उसकी सहायता करने में समर्थ नहीं है।
अहो! त्रिकाली चैतन्यस्वभाव के साथ ही तेरा एकता का सम्बन्ध है, वह कभी छूटनेवाला नहीं है; इसलिए उसकी पहिचान कर । यह शरीर तो तेरी चैतन्यजाति से भिन्न है, उसका संयोग क्षण में छूट जायेगा। चैतन्य को सँभाल, वही सदा शरण है; उसी के आश्रय से चारित्र और मुक्ति होने पर जन्म-मरण रहेगा नहीं, इसलिए पर की उपेक्षा करके स्वस्वभाव के सन्मुख होने का प्रयत्न कर।
धर्म प्राप्त करने की जिसकी योग्यता हुई, उसके ऊपर परमगुरुओं की प्रसन्नता हुई। धर्म पानेवाले को ज्ञानी गुरु मिले बिना नहीं रहता। ___मुनियों को संथारा में दूसरे मुनि सहायता करते हैं - ऐसा निमित्त से कथन होता है; परन्तु वे मुनि स्वयं अपने आत्मबल से समाधि करें तो समाधि होती है, अन्यथा नहीं होती। भले ही अन्य मुनिगण उपस्थित हों, तथापि समाधिमरण करने में तो जीव अकेला ही है। ___ऐसा सिद्धान्त समझे तो परसहाय की अपेक्षा न रखते हुए, पर से १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८१३ २. वही, पृष्ठ ८१४-८१५ ३. वही, पृष्ठ ८१५