________________
१००
नियमसार अनुशीलन भी प्रकार का कोई सहयोग संभव नहीं है। अत: हमें पर की ओर देखने का भाव छोड़कर स्वयं ही अपने हित में सावधान होना चाहिए।।१०१|| - इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथा चोक्तम् - तथा कहा भी है - ऐसा लिखकर एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है -
(अनुष्टुभ् ) स्वयं कर्म करोत्यात्मास्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥५४॥
(दोहा) स्वयं करे भोगे स्वयं यह आतम जग माँहि।
स्वयं रुले संसार में स्वयं मुक्त हो जाँहि ।।५४॥ यह आत्मा स्वयं ही कर्म करता है और उसका फल भी स्वयं ही भोगता है। स्वयं संसार में घूमता है और स्वयं ही संसार से मुक्त हो जाता है।
इस छन्द का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जीव का न तो कोई विरोधी है और न कोई सहायक है। कर्म का उदय जीव को रागादि कराता हो - ऐसा भी नहीं है। जीव अकेला ही रागादिक करता है और स्वयं ही उसका फल भी भोगता है। ___ जिसप्रकार संसार में अकेला ही भटकता है, उसीप्रकार आत्मभान करके मुक्त भी अकेला ही होता है। ___ हजारों मनुष्यों के बीच में हो; तथापि जो भाव करता है, वह स्वयं अकेला ही करता है और उसका फल भी स्वयं अकेला ही भोगता है। ऐसे स्वभाव के भान बिना प्रत्याख्यान नहीं होता।"
इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि यह आत्मा अपने परिणामों को स्वयं अकेला ही करता है और उनके सुख-दुःखरूप फल को स्वयं ही भोगता है। स्वयं की गलती से संसार में अकेला भटकता है और स्वयं अपनी गलती सुधार कर मुक्त भी हो जाता है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८१६