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गाथा १०० : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
सहज वैराग्य के महल के शिखर का शिरोमणि, स्वरूपगुप्त और पापरूपी अटवी को जलाने के लिए अग्नि समान जो मैं; उसमें और मेरे शुभाशुभ संवर में वह आत्मा है। __ अशुभोपयोग से परांगमुख और शुभोपयोग के प्रति उदासीन और साक्षात् शुद्धोपयोग के सन्मुख जो मैं, जिसके मुख से परमागमरूपी मकरंद सदा झरता है-ऐसे पद्मप्रभ (पद्मप्रभमलधारिदेव) के शुद्धोपयोग में भी वह परमात्मा विद्यमान है; क्योंकि वह परमात्मा सनातन स्वभाववाला है।"
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"ज्ञानी कहता है कि वास्तव में मेरे ज्ञान में आत्मा है अर्थात् मेरा ज्ञान आत्मा के आश्रय से ही होता है। सम्यग्दर्शन में भी आत्मा है अर्थात् सम्यग्दर्शन का ध्येय आत्मा ही है। चारित्र में भी आत्मा ही है, आत्मा के आश्रय बिना चारित्र नहीं होता। इसीप्रकार प्रत्याख्यान, संवर, शुद्धोपयोग आदि सभी में शुद्धात्मा का ही आश्रय है; इसलिए आत्मा ही सर्वत्र उपादेय है। ___ प्रथम सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की बात करके फिर प्रत्याख्यान की बात की; क्योंकि उन तीनों के सहित ही प्रत्याख्यान होता है । यहाँ मुनि के प्रत्याख्यान की बात है।
देखो तो सही! मुनि स्वयं अपने को लक्ष करके कहते हैं कि मैं सहजवैराग्यरूपी महल के शिखर का शिखामणि हूँ, स्वरूपगुप्त हूँ और पापरूपी वन को जलाने के लिए प्रचण्ड अग्नि के समान हूँ। मेरे शुभाशुभ के संवर में भी परमात्मा ही है। अहो! एक परमशुद्ध आत्मा ही मेरे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, प्रत्याख्यान व संवर में है। शुभ और अशुभ भाव के संवर में आत्मा है अर्थात् आत्मा के आश्रय में एकाग्र होने पर शुभाशुभभाव की उत्पत्ति ही नहीं होती, उसका नाम संवर है।' १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७९६ २. वही, पृष्ठ ७९९
३. वही, पृष्ठ ८०१