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नियमसार गाथा १००
अब इस गाथा में यह कहते हैं कि सर्वत्र एकमात्र आत्मा ही उपादेय है। गाथा मूलत: इसप्रकार है
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आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ।। १०० ।। ( हरिगीत )
मम ज्ञान में है आतमा दर्शन चरित में आतमा ।
अर योग संवर और प्रत्याख्यान में भी आतमा ||१०० || वस्तुतः मेरे ज्ञान में आत्मा है, दर्शन में आत्मा है तथा चारित्र में आत्मा है, मेरे प्रत्याख्यान में आत्मा है, मेरे संवर में आत्मा है और मेरे योग (शुद्धोपयोग ) में आत्मा है ।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
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" इस गाथा में 'सर्वत्र आत्मा उपादेय है' ऐसा कहा गया है। वस्तुतः आत्मा अनादि-अनंत, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाला, शुद्ध, सहज सौख्यात्मक है । सहजचेतनारूप से परिणमित मुझमें और मेरे सम्यग्ज्ञान में वह आत्मा है । पूजितपरमपंचमगति की प्राप्ति के हेतुभूत पंचमभाव (परमपारिणामिकभाव ) की भावनारूप से परिणमित मुझमें और मेरे सहज सम्यग्दर्शन में वह आत्मा है।
साक्षात् निर्वाण प्राप्ति के उपायभूत निजस्वरूप में अविचल स्थिति रूप सहज परमचारित्र परिणतिवाले मुझमें और मेरे सहज चारित्र में भी वह परमात्मा सदा सन्निहित है ।
सदा सन्निहित शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप और सुख-दुःख - इन छह भावों से संपूर्ण संन्यासात्मक, परद्रव्य से परांगमुख, पंचेन्द्रिय विस्तार से रहित, भेदविज्ञानी और देहमात्र परिग्रहवाले मुझमें और मेरे निश्चय प्रत्याख्यान में वह आत्मा सदा निकट ही विद्यमान है ।
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