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गाथा १०० : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
वह चैतन्य ही एक शरण है। 'अरिहन्ते शरणं' आदि कहना तो शुभभाव है, वास्तव में चैतन्य को पर की शरण नहीं है। लोग कहते हैं कि तुमको अरिहन्त का शरण होवे, सिद्ध का शरण होवे; परन्तु यहाँ तो कहते हैं कि हाजिरहजूर चैतन्यभगवान ही वास्तविक शरण है, उसे सँभाल! इसके अतिरिक्त बाहर कोई शरण नहीं है । चैतन्य की शरण में आने पर ही धर्म होगा। अरिहन्त के लक्ष्य से शुभभाव होगा, धर्म नहीं और वह शुभभाव आत्मा को शरणभूत नहीं है। ___ चैतन्य में जो स्थिर हुआ है – ऐसे अप्रमत्त योगी को आत्मा ही एक आचार है। मुनियों को पंचमहाव्रतादि तो व्यवहार से आचार है, वास्तव में चैतन्य में लीनता ही एक आचार है। __ आत्मा में स्थिर होना ही निश्चय से आवश्यक क्रिया है, अवश्य करने योग्य है।
वही एक स्वाध्याय है । स्व अर्थात् चैतन्यस्वरूप निजात्मा, उसकी श्रद्धा-ज्ञान करके लीनता करना ही परमार्थ से स्वाध्याय है। शास्त्र का वाँचन आदि व्यवहार स्वाध्याय है, शुभराग है । परमार्थ से तो आत्मा ही स्वाध्याय है । कुल ग्यारह बोल हुये :___ आत्मा ही सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है, सम्यक्चारित्र है, तप है; आत्मा ही नमस्कार योग्य है, मंगल है, उत्तम है, शरण है, आत्मा ही आचार है, षडावश्यक क्रिया है और स्वाध्याय है। इनमें आवश्यक के छह बोल अलग गिनें तो कुल सोलह बोल होते हैं। ये सभी बोल निश्चय से एक आत्मा में ही समा जाते हैं।" ___उक्त तीनों छन्दों में यह तो कहा ही गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप - ये सब एक आत्मा ही हैं; साथ में यह भी कहा गया है कि नमस्कार करने योग्य भी एक आत्मा ही है; मंगल, उत्तम और शरण भी एक आत्मा ही है; षट् आवश्यक, आचार १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८०५
२. वही, पृष्ठ ८०६ ३. वही, पृष्ठ ८०६
४. वही, पृष्ठ ८०७