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नियमसार अनुशीलन नहीं है, सम्यग्ज्ञान का अवलम्बन तो अन्तर में विद्यमान ध्रुव चैतन्यतत्त्व ही है; इसलिए वह चैतन्यज्योति ही एक परमज्ञान है, वही एक पवित्रदर्शन है। अन्तर में चैतन्य की प्रतीति होना ही सम्यग्दर्शन है, इसके अलावा बाह्यपदार्थों के आश्रय से सम्यग्दर्शन नहीं है। परमचैतन्यतत्त्व ही सम्यग्दर्शन है और उसमें लीनता ही चारित्र है अर्थात् अभेदपने वही एक चारित्र है, रागादिभाव चारित्र नहीं हैं तथा वह चैतन्यज्योति ही एक निर्मल तप है । ज्ञानानन्द में लीनता होने पर इच्छा का अभाव हो जाता है, वही तप है । वह तप आत्मा के आधार से है।
पर को नमस्कार करना तो पुण्य है। पुण्य-पाप से हटकर आत्मा के चिदानन्दस्वरूप में रम जाना - ढल जाना - लीन हो जाना परमार्थ नमस्कार है अर्थात् नमस्कार करने योग्य तो सहज चिदानन्दस्वरूप ही है। जैनदर्शन में व्यवहार से नमस्कार करने योग्य तो श्री अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-ये पंचपरमेष्ठी ही हैं और परमार्थ से अपना आत्मा ही नमस्कार करने योग्य है। उसकी श्रद्धा-ज्ञान करके उसमें लीन होना ही नमस्कार है। ___ चैतन्य ही एक मंगल है। अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म को मंगलरूप कहना व्यवहार है। अपने लिए तो अपना चैतन्यमूर्ति
आत्मा ही मांगलिक है, उसका आश्रय करने पर पाप गल जाता है और पवित्रता प्रगट होती है। आत्मा के आश्रय से सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप मंगलदशा प्रगट होती है।
भगवान आत्मा ही एक उत्तम है। अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म – इन चार को उत्तम कहना तो व्यवहार है, उसमें शुभराग है। वास्तव में परद्रव्य अपने लिए उत्तम नहीं, अपने लिए तो सबसे उत्तम अपना आत्मा ही है; क्योंकि आत्मा के ही आश्रय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि प्रगट होते हैं, पर के आश्रय से नहीं। लोक में आत्मद्रव्य ही उत्तम है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८०२-८०३ २. वही, पृष्ठ ८०३-८०४ ३. वही, पृष्ठ ८०४
४. वही, पृष्ठ ८०४-८०५