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नियमसार अनुशीलन
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ज्ञान और रमणता करना ही प्रत्याख्यान है । वस्तुस्वभाव में राग का ग्रहण ही नहीं है; अतः वास्तव में राग का त्याग करना भी नहीं है ।
सचमुच बात तो यह है कि वस्तुस्वभाव को लक्ष में लेकर उसमें एकाग्र होने पर जो निर्मलपर्याय उत्पन्न होती है, उस पर्याय में राग का अभाव है; इसलिए उसका नाम प्रत्याख्यान है । ""
इस गाथा में मात्र यही कहा गया है कि यह भगवान आत्मा अपने स्वभाव भाव को कभी छोड़ता नहीं है और रागादिभावों सहित सम्पूर्ण परभावों का कभी ग्रहण नहीं करता; क्योंकि इसमें एक त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति है, जिसके कारण यह पर के ग्रहण - त्याग से पूर्णतः शून्य है । यह तो सभी स्व-पर पदार्थों को मात्र जानता-देखता है, उनमें कुछ करता नहीं है। ऐसा यह भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ । ज्ञानी जीव सदा ऐसा चिन्तवन करते हैं ।। ९७ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथा चोक्तं श्री पूज्यपादस्वामिभिः - तथा पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है – कहकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है -
( अनुष्टुभ् )
यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुंचति ।
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।४९ ॥ ( हरिगीत )
जो गृहीत को छोड़े नहीं पर न ग्रहे अग्राह्य को । जाने सभी को मैं वही है स्वानुभूति गम्य जो || ४९|| जो अग्राह्य को ग्रहण नहीं करता, गृहीत को अर्थात् शाश्वत शुद्ध स्वभाव को छोड़ता नहीं है और सभी को सभी प्रकार से जानता है; वह स्वसंवेद्य तत्त्व मैं स्वयं ही हूँ।
इस छन्द में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि जो रागादि विकारी भाव अग्राह्य हैं, ग्रहण करने योग्य नहीं; उन्हें जो ग्रहण नहीं करता और जिसे अनादिकाल से ग्रहण किया हुआ है - ऐसा जो अपना १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७७५–७७६ २. समाधिशतक, छन्द २०