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नियमसार अनुशीलन
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को नहीं जानती, वह द्रव्य को जानने के साथ-साथ अपने को भी बराबर जानती है । प्रगट होती हुई पर्याय स्वयं अपने को स्वसंवेदन से जानती हुई प्रगट होती है । '
यहाँ 'आत्मा आत्मा को जानता है' - ऐसा कहकर पर्याय समयसमय आत्मा से अभेद होती जाती है - ऐसा बतलाया है ।
औदयिकादि पर्यायों के ऊपर लक्ष नहीं है, लक्ष तो ध्रुव पारिणामिक भाव पर है; इसलिए ऐसा कहा कि आत्मा एक पंचमभाव को जानता है, परन्तु वहाँ ऐसा मत समझना कि अकेले सामान्य का ही ज्ञान है और विशेष का ज्ञान है ही नहीं । द्रव्य और पर्याय दोनों का ज्ञान साथ ही होता है। वर्तमान पर्याय आत्मा के साथ अभेद होकर आत्मा को जानती है। पर्यायरूप परिणमे बिना अकेला द्रव्य द्रव्य को जानता है - ऐसा नहीं है ।
आत्मा आत्मा में एक पंचमभाव को जानता है - ऐसा कहा; परन्तु इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि अन्य चार भावों का ज्ञान ही नहीं होता । उनका भी ज्ञान तो होता है, किन्तु दृष्टि में अभेद आत्मा की ही मुख्यता है; इसलिए ऐसा कहा कि आत्मा एक पंचमभाव को जानता- - देखता है । जिसने अपने सहज एक पंचमभाव को कभी छोड़ा ही नहीं और अन्य परभावों को कभी ग्रहण किया ही नहीं - ऐसे आत्मा का भान होने के पश्चात् ही उसमें एकाग्र होने पर राग का त्याग हो जाता है और उसी का नाम प्रत्याख्यान है। जिसने चैतन्य ज्ञायकभाव को कभी छोड़ा नहीं और विकार को अपने में ग्रहण किया नहीं - ऐसा जो परमपारिणामिक भाव है, उसकी प्रतीति करके उसमें एकाग्र होना ही प्रत्याख्यान है । २" उक्त कलश में यह कहा गया है कि यह आत्मा, अनंत गुणों से समृद्ध पंचमभावरूप अपने आत्मा को अपने आत्मा में ही जानतादेखता है। इस आत्मा ने उक्त परमपारिणामिकभावरूप पंचमभाव को
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७७९
२. वही, पृष्ठ ७७९-७८०
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