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गाथा ९७ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार ___ “निजभाव अर्थात् अपने त्रिकाली द्रव्यस्वभाव को आत्मा कभी नहीं छोड़ता। वस्तु का स्वभाव कभी नहीं छूटता। जैसे गुड़ अपने मिठास को कभी नहीं छोड़ता, वैसे ही आत्मा कभी अपने सहजस्वरूप को नहीं छोड़ता। __वस्तु के स्वभाव में एक समय का विकार कभी हुआ ही नहीं, त्रिकाली द्रव्यस्वभाव ने कभी विकार को पकड़ा ही नहीं, वह तो त्रिकाल सबका ज्ञायक-दर्शक है और वह ऐसा आत्मा ही मैं हूँ - इसप्रकार ज्ञानी अपने आत्मा का चिन्तवन करके उसमें एकाग्र होता है।
आचार्यदेव प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि पर्यायबुद्धि को छोड़कर स्वभावबुद्धि करके अपने आत्मा का आश्रय कर!
पूर्णस्वभाव तो जैसे का तैसा शाश्वत है, उसकी भावना और एकाग्रता करने से ही राग का प्रत्याख्यान होता है।
भगवान परमात्मा त्रिकाल समस्त विकार के अभावस्वरूप ही है, उसका आश्रय लेने पर मिथ्यात्वादि पापों की उत्पत्ति नहीं होती; इसलिए वह कारणपरमात्मा समस्त पापरूपी सेना को लूटनेवाला है- ऐसा कहा। उस कारणपरमात्मा के आश्रय से ही मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय का प्रत्याख्यान हो जाता है अर्थात् उन भावों की उत्पत्ति ही नहीं होती। वह कारणपरमात्मा अपने परमभाव को कभी छोड़ता नहीं। __एक छूटे हुए पुद्गलपरमाणु को स्वभावपुद्गल कहते हैं और स्कंध को विभावपुद्गल कहते हैं। आत्मा को विकार उत्पन्न करने में एक छूटा परमाणु निमित्त नहीं होता, किन्तु विभावपुद्गल ही निमित्त होता है; तथापि उस पुद्गलकर्म के निमित्त से होनेवाले परभाव को भगवान कारणपरमात्मा कभी ग्रहण नहीं करता। पर्याय में क्षणिक रागादि परभाव होते हैं, उन्हें आत्मा अपने स्वभाव में कभी ग्रहण नहीं करता। वस्तु तो त्रिकाल एकरूप जैसी की तैसी है । उस वस्तुस्वरूप की श्रद्धा, १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७७४ २. वही, पृष्ठ ७७४
३. वही, पृष्ठ ७७५