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नियमसार अनुशीलन
अनन्तचतुष्टयस्वरूप हूँ; पर टीकाकार कहते हैं कि ज्ञानी को ऐसा सोचना चाहिए कि मैं अनन्तचतुष्टयस्वरूप हूँ ।
आप कह सकते हैं कि इसमें क्या अन्तर है, एक ही बात तो है; पर भाईसाहब ! गाथा में कहा है कि ज्ञानी ऐसा सोचते हैं और टीका में कहते हैं कि सोचना चाहिए - यह साधारण अन्तर नहीं है; क्योंकि जब ज्ञानी सदा ऐसा सोचते ही हैं तो फिर यह कहने की क्या आवश्यकता है कि उन्हें ऐसा सोचना चाहिए ? अरे, भाई ! उपयोग बार-बार बाहर चला जाता है; इसलिए आचार्यदेव अपने शिष्यों को ऐसा उपदेश देते हैं कि सदा इसीप्रकार के चिन्तन में रत रहो ||१६||
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ – तथा एकत्व सप्तति में भी कहा है - ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है
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( अनुष्टुभ् ) केवलज्ञानदृक्सौख्यस्वभावं तत्परं महः । तत्र ज्ञातेन किं ज्ञातं दृष्टे दृष्टं श्रुते श्रुतम् ॥ ४८ ॥ ( रोला ) केवलदर्शनज्ञानसौरव्यमय परमतेज वह ।
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उसे देखते किसे न देखा कहना मुश्किल ॥
उसे जानते किसे न जाना कहना मुश्किल ।
उसे सुना तो किसे न सुना कहना मुश्किल ॥४८॥ वह परमतेज केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलसौख्यस्वभावी
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है । उसे जानते हुए क्या नहीं जाना, उसे देखते हुए क्या नहीं देखा और उसका श्रवण करते हुए क्या नहीं सुना ?
इस छन्द के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"अहो ! अपना आत्मा परमतेज केवलज्ञान दर्शन - सुखस्वभावी है । ऐसे अपने आत्मा को जान लेने पर क्या नहीं जान लिया? जिसने आत्मा को जान लिया, उसने सबकुछ जान लिया । जिसने आत्मा को १.पद्मनन्दिपंचविंशति, एकत्वसप्तति अधिकार, छन्द २०
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